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चौथा अध्याय
" हे भगवन् 1. किसके जान लेनेपर सारा जगत् जाना हुआ हो जाता है ? उसके लिए उनने [ अंगिरसने] कहा- दो विद्या जानना चाहिये जिनको ब्रह्मज्ञानी परा और अपरा विद्या कहते हैं । ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष, ये अपरा विद्याएँ हैं । और परा वह है जिसके द्वारा वह अक्षर [ नित्य=मोक्षप्रद - ब्रह्म ] जाना जाता है - प्राप्त १ होता है । केवली या अर्हत् को जीवन्मुक्त भी कहा जाता है । जीवन्मुक्त का वर्णन दूसरे शास्त्रों में भी आता है । उससे पता लगता है कि जीवन्मुक्त को त्रिकालत्रिलोक नहीं जानना पड़ता किन्तु चित्तशुद्धि करना पड़ती है, विपत्प्रलोभनों पर विजय करना पड़ती हैं, सिर्फ आवश्यक ज्ञेयों को जानना पड़ता है, केवल आत्मा का ज्ञान करना पड़ता है । कुछ उद्धरण देखिये ।
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यस्मिन् काले स्वमात्मानम् योगी जानाति केवलम | तस्मात्कालात्समारभ्य जीवन्मुक्तो भवेदसौ ।
वराहोपनिषत् २-४२
जब से योगी केवल अपने आत्मा को जानता है तब से वह जीवन्मुक्त हो जाता है ।
१ कस्मिन्नुभावो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीत्ति । १--१--३ तस्मै स होवाच । द्वे विद्ये वंदितव्यं इति ह स्म य ब्रम्हविदो वदन्ति परा चैवापरा च । १-१-४ । तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेद : शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति । अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते । ५- १.५ | मुंडकोपनिषत् |