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वास्तविक अर्थ का समर्थन [१५९ आप्तमीमांसा में समंतभद्र कहते हैं -
स्याद्वाद [रुतज्ञान] और केवलज्ञान दोनों ही सब तत्त्वोंको प्रकाशित करनेवाले हैं । अन्तर इतना है कि स्यावाद असाक्षात् (परोक्ष) है और केवलज्ञान साक्षात् १ (प्रत्यक्ष-अनुभवमूलक) है । .
विशेषावश्यक भाष्य में भी केवलज्ञान और रुतज्ञान को बराबर कहा है । वहाँ कहा है कि इरुतज्ञान की स्वपर्याय और परपयायें केवलज्ञान से कम होनेपर भी दोनों मिलकर केवलज्ञान के बराबर २ हैं।
इस से यह बात अच्छी तरह समझमें आजाती है कि केवलज्ञान, विषय की दृष्टिसे श्रुतज्ञान से अधिक नहीं है । प्राचीन मान्यता यही है और उस मान्यताके भग्नावशेष रूप ये उद्धरण हैं | पांछे से केवलज्ञान का जब विचित्र और असंभव अर्थ किया गया तब इन या ऐसे वाक्यों के अर्थ करने में भी खींचातानी की गई। फिर भी ये उद्धरण इतने स्पष्ट हैं कि वास्तविक बात जानने में कठिनाई नहीं रह जाती।
त्रिकाल त्रिलोक की समस्त द्रव्यपायों को न तो केवलहान जान सकता है और न श्रुतज्ञान जान सकता है । परन्तु जैनविद्वान् हतज्ञान के सम्बन्ध में यह बात स्वीकार करने के लिये तैयार हैं किन्तु केवलज्ञान के विषय में स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं
१ स्याद्वादकंवलज्ञाने सर्वत वप्रकाशने ! भेदः साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्वन्यतमं मवेत् ।
आप्तमीमांसा, देवागम, १०५ । १२ सयपञ्जाएहि उ केवलेण तुहूं न होच न परेहि । सफामज्जाए हि तु तुल्लं तं केवलेणेव ।
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