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चौथा अध्याय प्रश्न-परांविधा वाले ( केवली ) को अपराविद्या की क्या आवश्यकता है ?
उत्तर-पगविद्या प्राप्त होने के पहिले उसकी ज़रूरत रहने पर भी उसके बाद ज़रूरत नहीं रहती। परन्तु यह अनावश्यकता अपने लिये है न कि जगत् के लिये । जगत् के उद्धार के लिये अपराविद्या की आवश्यकता है, क्योंकि जगत् की समस्याएँ उसीसे पूरी की जाती हैं।
प्रश्न-केवली की अपराविद्या और श्रुतकेवली की अपराविद्या में कुछ फर्क है कि नहीं ?
उत्तर- विशालता की दृष्टि से दोनों में कुछ अन्तर नहीं है । परन्तु गंभीरता की दृष्टि से दोनों में बहुत अन्तर है। केवली का ज्ञान अनुभवात्मक होता है । वह ज्ञान के मर्म को अनुभव में ले आता है, जबकि इतकेवली का ज्ञान गुरु के द्वारा प्राप्त होता है । उसका ज्ञान अनुभवात्मक नहीं, पुस्तकीय होता है । इसीलिये केवली के ज्ञान को प्रत्यक्ष (अनुभवात्मक) और श्रुतकेवली के ज्ञान को परोक्ष (गुरु आदिसे प्राप्त) कहा जाता है । जैन-शास्त्रकारों ने इस विषयको अच्छी तरह लिखा है । गोम्मटसार में लिखा है
रुतज्ञान और केवलज्ञान दोनों ही ज्ञानकी दृष्टि से (पदार्थों को जानने की दृष्टिमे) बराबर हैं । अन्तर इतना ही है कि श्रुतज्ञान परोक्ष है और केवलज्ञान प्रत्यक्ष (१) है ।'
मुद केवलं च गाणं दोण्णिवि सरिसाणि होति बोहादो। सुदणाण तु परोक्खं पञ्चवं केवलं गाणं ।
-गो. जीवकांड ३६९ ।