________________
१५४ ]
चौथा अध्याय
जगत का ज्ञान नहीं, किन्तु केवल आत्मा का ज्ञान है । इसा ज्ञान को दूसरे दर्शनों में प्रकृति - पुरुष - विवेक, ब्रह्मसाक्षात्कार आदि नामों से कहा है । जैनियों का केवलज्ञान भी यही पर पवित्र आत्मज्ञान है । इसके जान लेने से ' जगत् जान लिया' या 'सब जान लिया ' कहा जाता है ।
उस आत्मज्ञान के होने पर जगत् के जामने की जरूरत नहीं रहती, इसलिये उसके ज्ञाता को सर्वज्ञ भी कहते हैं; क्योंकि जिसे कुछ जानने की ज़रूरत नहीं रही उसके विषय में यह कहना कि उसने 'सब कुछ जान लिया' कोई अनुचित नहीं है । जैसे करने योग्य [ कृत्य ] कर लेने से कृतकृत्य कहलाता है ( यह आवश्ययक नहीं है कि उसने सब कुछ कर लिया हो ) उसी प्रकार जानने योग्य जान लेने से सर्वज्ञ कहलाता है । यह आवश्यक नहीं है कि उसने सब जान लिया हो । इसीलिये आचाराङ्गसूत्र में कहा है-
'जो आत्माको जानता है वह सबको जानता है, या जो सबको जानता है वह आत्मा को जानता १ हैं ।'
'जो अध्यात्म को जानता है वह बाह्य को जानता है जो बा को जानता है वह अध्यात्म को जानता २ है ।"
इसका योग्य अर्थ यही है कि जो आत्मा को या अध्यात्म को जानता है वह सभी को या बाह्य को जानता है; सर्वज्ञ या
१ जे एगं जाणह से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणड़ से एगं जाणइ । ३४-१२२ २ जे अज्झत्थं जाणइ से बाहिया जागद, जो बाहिया जगह से अन्त्ध आगर
११-७-५६