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चौथा अध्याय प्रश्न-'सर्वज्ञ लोक व्यवहारज्ञ है' ऐसा अर्थ क्यों न किया जाय ?
. उत्तर-ऐसा अर्थ करने पर यह वाक्य ही व्यर्थ हो जायगा क्यों कि सर्वज्ञ को लोकव्यवहारज्ञ बनाने की ज़रूरत क्या है ? अगर वह सब पदार्थों को जानता है तो लोक व्यवहार को भी जानता ही है । यह वाक्य वास्तव में सर्वज्ञता का लक्षण बताने के लिये है यहाँ सर्वज्ञ लक्ष्य है और लोकव्यवहारज्ञ लक्षण | इस प्रकार सर्वज्ञ शब्द का अर्थ यहाँ दिया है। लोकव्यवहार सब से महत्व की चीज़ है जिसने वह जान लिया वह सर्वज्ञ हो गया । मोमदेव सूरि का यह वचन उपयुक्त ही है।
चन्द्रप्रभचरित में पद्मनाभ राजाने एक अवधिज्ञानी श्रीधर मुनि के दर्शन किये हैं । उन मुनि के वर्णन में कहा गया है:---
जिनके वचनों में त्रिकाल की अनन्तपर्याय सहित सब पदार्थ इसी प्रकार दिखाई देते हैं जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिम्ब दिखाई देता है ।' १
फिर राजा मुनि से कहता है ' ' 'इस चराचर जगत में मैं उसे खपुष्प ( कुछ नहीं ) मानता हूँ जो आपके दिव्यज्ञानमय चक्षुमें प्रतिबिम्बित नहीं हुआ ।' २
श्रीधर मुनि केवली नहीं थे यह बात उनके वर्णन से साफ
५ त्रिकालगोचरानन्तपर्यायपरिनिष्ठितं । प्रतिबिम्बामिवादजगधद्वचसीक्ष्यते ॥
-- चंद्रप्रभ चरित्र २.६ - २ खपुष्पं तदमन्ये भुवने सचराचरं । दिव्यज्ञानमये यन्न स्फुरितं तव चक्षुषि ॥
-चंद्रप्रभ चरित्र २.४२