________________
१०२ ]
चौथा अध्याय
1
वस्तुका प्रतिबिम्ब मान लिया जाय तो आत्मा में इतने प्रदेश नहीं हैं. जितने जगत् में पदार्थ हैं । तब वे प्रतिबिम्बित कैसे होंगे ? फिर एक पदार्थ की भूत और भविष्य काल की अनन्तानन्त पर्यायें होती हैं उन सब के जुदे जुदे प्रतिबिम्ब कैसे पड़ेंगे ! इसके अतिरिक्त एक बाधा और है | किसी वस्तुको ग्रहण करने की शक्ति स्वाभाविक हो सकती है, परन्तु उस शक्ति के प्रयोग के जो परसम्बन्धी विविधरूप हैं वे स्वाभाविक और सार्वकालिक नहीं हो सकते । दर्पण में प्रतिबिम्ब ग्रहण करने की शक्ति स्वाभाविक है परन्तु दर्पण में जितने पदार्थों के प्रतिबिम्ब पड़ सकते हैं वे सब प्रतिबिम्ब दर्पण में प्रारम्भ से ही सदा विद्यमान हैं और निमित्त मिलने पर वे सिर्फ अभिव्यक्त (प्रकट) हुए हैं यह कहना अप्रामाणिक है । इसी प्रकार यह कहना भी प्रामाणिक है कि आत्मा में अनन्त पदार्थों के आकार बने हुए हैं, वे निमित्त मिलने पर या आवरण हटने पर अपने आप प्रकट होते हैं । इस विषय में एक और बड़ी भारी अनुभवबाधा है ।
एक मनुष्य अल्पज्ञानी है । कल्पना करो वह दस पदार्थों को जानता है परन्तु एक समय में वह एक ही वस्तुपर उपयोग लगा सकता है । दूसरा आदमी सौ पदार्थों को जानता है परन्तु वह भी एक समय में एक ही उपयोग लगा सकेगा । हम जब पचास चीजों को जानते हैं तब वे सब चीजें हमें सदा क्यों नहीं झलकती ? हमें जितना ज्ञान है उतना तो सदा झलकते रहना चाहिये। ऐसा नहीं होता इसलिये यही कहना चाहिये कि अगर कोई मनुष्य सर्वज्ञ होगा तो वह भी लब्धिरूपमें ही सर्वज्ञ होगा, उपयोग रूप में