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केवली और मन
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रहती हैं इसलिये उससमय भी मनोयोग कहलायगा । इस प्रकार मनोयोग की यह परिभाषा अतिव्याप्ति दूषण से दूषित होकर निकम्मी हो जायगी । अथवा योगविभाग का वर्णन ही निकम्मा हो जायगा।
इस प्रकार मनोयोग की जो परिभाषा श्रीधवल में, गोम्मटसार टीका में, तथा सर्वार्थसिद्धि आदि में की गई है वही ठीक है । वह परस्पर अविरुद्ध भी है अनुभवगम्य भी है । उसके आधार से मन उपयोग के बिना मनोयोग नहीं हो सकता। इस प्रकार केवली के मनोयोग और मनउपयोग सिद्ध होते हैं और इससे प्रचलित सर्वज्ञता का खण्डन होता है।
अब मैं यहाँ कुछ ऐसे प्रमाण उपस्थित करता हूं, जिससे पाठकों को मालूम होगा कि केवलीके मनोयोग और मनउपयोग वास्तविक होता है, उससे वे किसी खास वस्तुपर विचार करते हैं।
१- जब केवलियोंसे कोई बातचीत करता है और दो केवली जब आपस में बातचीत करते हैं तब यह बात स्पष्ट है कि बातचीत करनेवाले की बात केवली सुनते हैं और सुनकर उत्तर देते हैं ।
प्रश्न-केवली किसी के शब्द सुनते नहीं हैं किन्तु जब से उन्हें केवलज्ञान पैदा हुआ है तभी से वे शब्द उनके ज्ञानमें झलक रहे हैं।
उत्तर-यदि पहिले से वे शब्द झलकते हैं तो भूतमविष्य के अनन्त प्राणियों के अनन्त शब्द उनके ज्ञानमें झलकेंगे। परन्तु इन सक्की विशेषताओं पर वे अलग अलग ध्यान न दे सकेंगे। और