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चौथा अध्याय
अर्थ कर दिया जायगा । इस प्रकार तत्वार्थ के प्रत्येक सूत्रका अर्थ बदला जा सकेगा ।
दूसरी बात यह है कि पहिले से अगर निषेध का प्रकरण हो तो यहाँ भी परिषहों का निषेध समझा जाय परन्तु दसवें सूत्रमें परिषहों का सद्भाव बताया गया है तब 'न' की अनुवृत्ति कहाँ से आ जायगी ? अगर 'न' की अनुवृत्ति आ भी जाय तो बारहवें सूत्र ( बादर सांपराये सर्वे ) में भी 'म' की अनुवृत्ति जायगी और नत्र में गुणस्थान में सब परिष का अभाव सिद्ध होगा इस प्रकार 'न सन्ति' का अध्याहार नहीं बन सकता ।
'एक·| अ+दश' इस प्रकार की सन्धि भी अनुचित है । संस्कृत में ग्यारह के लिये 'एकादश' शब्द आता है। अगर एकदश शब्द आता होता तो कह सकते थे कि 'अ' अधिक है. इसलिये उसका निषेध अर्थ करना चाहिये । अथवा 'अ' अगर एकादश के आदि में या अन्त में आया होता तो वह निषेधवाची अलग पद बनता । यहाँ वह ग्यारह को कहनेवाले एक शब्द के बीच में पड़ा है इसलिये वही अलगपद नहीं बन सकता । खैर; व्याकरण की दृष्टि से उसपर जितना विचार किया जायगा 'एकादश' का 'ग्यारह नहीं' अर्थ निकालना उतना ही असंगत होगा ।
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इसके अतिरिक्त एक बात यह भी है कि निषेध अर्थ निकाल करके भी निषेध अर्थ नहीं होता । इस प्रकरण में इस बात का उल्लेख है कि किस गुणस्थान में बाईस में से कितनी परिषदें हैं। दसवें सूत्रमें सूक्ष्म सांपराय, उपशांतमोह, क्षीणमोह गुणस्थानों में चौदह