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केवली के अन्य ज्ञान
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यह ठीक है कि ज्ञानपूर्वक भी ज्ञान होता है लेकिन प्रथम ज्ञान के पहले दर्शन का होना जरूरी है । सोते २ जब कभी ज्ञान का प्रारंभ होगा तो उसके पहले दर्शन अवश्य होगा | यह तो कहा ही नहीं जा सकता कि जाग्रत अवस्था में भले ही ज्ञानोपयोग रुक जाता हो किन्तु निद्रावस्था में नहीं रुक सकता । ज्ञानोपयोग जाग्रत अवस्था में जितना संभव है निद्रावस्था में उससे कम ही संभव है । जाग्रत अवस्था में तो मनुष्य का मन कहीं न कहीं लगा ही रहता है इसलिये ज्ञान की धारा यहां अविच्छिन्न ही रहे तो भी चल सकता है किन्तु निद्रावस्था में जहाँ कि मन प्रायः सभी दार्शनिकों की दृष्टि में निश्श्रेष्ठ सा हो जाता है उस समय ज्ञान की धारा सदा उपयोगरूप में बनी रहे यह असंभव है । स्वप्नादिक के रूप में वह बीच बीच में प्रकट हो सकती है और दर्शन का होना आवश्यक होता है इस प्रकार जब ज्ञान और दर्शन दोनों ही हो सकते हैं तब निद्राओं को ज्ञानावरण के समान दर्शनावरण का भी भेद नहीं कह सकत |
उसके पहले निद्रावस्था में
जैनियों की एक कल्पित मान्यता को सिद्ध करने के लिये यहां अन्य अनेक वास्तविक और युक्त्यनुभवगम्य सिद्धान्तों की हत्या की गई है । समूचे दर्शन का घात करना समूचे दर्शनावरण का काम हो सकता है, दर्शनावरण के किसी एक भेद का नहीं । ज्ञान के पांच भेद हैं, उनके घातक भी पांच हैं । अब क्या समूचे ज्ञान को घातने के लिये ज्ञानावरण के किसी अन्य भेद की आवश्यकता हैं ? यदि नहीं, तो दर्शनावरण में क्यों ? यह कल्पना ही हास्यास्पद है ।
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