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१४२ ] चौथा अध्याय
दूसरी बात यह है कि यदि निद्रा घातिकर्मों का फल होती तो उसका लब्धि और उपयोग रूप स्पष्ट होता। घातिकर्मों की क्षयोपशमरूप लब्धि, उपयोग रूप हो या न हो तो भी बनी रहती है। हम आँख से देखें या न देखें तो भी चक्षुर्मतिज्ञानावण की क्षयोपशमरूप लब्धि मानी जाती है। निद्रा दर्शनावरणों की लब्धि का रूप समझ में नहीं आता । निद्रा दर्शनावरण का उदय तो सदा रहता है और आक्षेपक के शब्दों में वह करता है समूचे दर्शन का घात, तब चक्षुर्दर्शनावरणादि के क्षयोपशम होने पर भी चक्षुर्दर्शन न हो सकेगा। जब सामान्य रूप में कोई लैम्प चारों तरफ से ढका हुआ है. तब उस के भीतर के छोटे छोटे आवरण हटने से क्या लाभ ? इसी प्रकार जब निद्रा का उदय सदा मौजूद है तब चक्षुरादि दर्शन कभी होना ही न चाहिये । (गोम्मटसार कर्मकाण्ड के अध्ययन से यह बात अच्छी तरह समझी जा सकती है।) इससे निद्रा आदि को दर्शनावरण का भेद बनाना अनुचित है। उसका घाति-कर्म से कोई मेल नहीं है । हाँ उसे नाम कर्म का भेद-प्रभेद बनाया जा सकता है। ऐसी हालत में वह अरहंत के भी रहना उचित है !
प्रश्न-चक्षुर्दर्शनावरणादि चक्षुर्दर्शन आदि का मूल से घात करते हैं । परन्तु निद्रा इस प्रकार मूल से घात नहीं करती । वह प्राप्तलब्धि को उपयोग रूप होने में बाधा डालती है।
उत्तर-यदि प्राप्त दर्शन को उपयोग रूप न होने देनेवाली कर्मप्रकृतियाँ अलग मानी जायेंगी तो प्राप्त ज्ञान को उपयोग रूप न होने देनेवाली कर्म प्रकृतियाँ भी अलग मानना पड़ेंगी । सिद्धों के सभी लब्धियाँ उपयोगरूप नहीं रहती इसलिये उनको सका मानना