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केवली और मन यह मनोयोग सम्बन्धी प्रकरण लिखा है । ऊपर जो सत्यमन आदि का वर्णन गोम्मटसार टीका के आधार से किया है उससे साफ़ मालूम होता है कि मनउपयोग के बिना मनोयोग नहीं हो सकता। मनोवर्गणा के आगमन से मनायोग मानने में क्या दोष हैं इसका विवेचन इस प्रकरण के प्रारम्भ में नम्बर तीन देकर किया है।
फिर भी अधिकांश शास्त्रों में मनोयोग की जो परिभाषाएँ बनाई गई हैं उनसे यह साफ़ मालूम होता है कि मनउपयोग के बिना मनोयोग नहीं हो सकता । गोम्मटसार टीका का उल्लेख तो ऊपर किया ही गया है अब सर्वार्थसिद्धि की परिभाषा पर विचार करलें।
अभ्यन्तरवीर्यान्तरायनाइन्द्रियावरणक्षयोपशमात्मकमनोलब्धिस - निधाने बाह्यनिमित्तमनोवर्गणालम्बने च सति मनःपरिमाणा - भिमुखस्यात्मनः प्रदेशपरिस्पन्दो मनोयोगः । सर्वार्थसिद्धि ६-१ ।
वीर्यान्तराय और नोइन्द्रियमतिज्ञानावरण का क्षयोपशमरूप मनोलब्धिका संनिधान होने पर (अभ्यन्तर कारण) और मनोवर्गणा का आलम्बन मिलने पर [बाह्यकारण] मनरूप अवस्था के लिये अभिमुख आत्मा का जो प्रदेशपरिस,न्द है वह मनोयोग है।
इस परिभाषा में ज्ञानावरण का क्षयोपशम, मनोवर्गणा, और आत्मा की मनरूपपरिणति, ये तीन बातें खास विचारणीय हैं । मनोयोग में बाहा निमित्त रूप मनोवर्गणा की आवश्यकता बताई गई है पर ज्ञानावरण का क्षयोपशम और मनरूप परिणति से पता लगता है कि यहाँ मनउपयोग अवश्य हुआ है। यहाँ जो आत्मा की मन