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केवली और मन उपचारो हि निमित्तप्रयोजनवानेव, तत्र निमित्तं यथा...... मुख्यमनोयोगस्य केवलिन्यभावादेव तत्कल्पनारूपोपचारः कथितः । तस्य प्रयोजनमधुना कथयति ....... अंगोवंगुदयादो २२९ ।
इससे यह बात साफ है कि जैन लोगों ने केवली के मनोयोग को उपचरित कहने के लिये खूब गला फाड़ा है क्योंकि मनोयोग से सर्वज्ञता की मान्यता को धक्का लगता है । पर मनोयोग को उपचरित मानने के कारण कितने पोच हैं यह बात मैं पहिले चार बातें कह कर स्पष्ट कर चुका हूं।
प्रश्न-सर्वज्ञ के आप मनोयोग सिद्ध करदें तो भी इससे प्रचलित सर्वज्ञता को धक्का नहीं लगता । क्योंकि मनोयोग और मनउपयोग की च्याप्ति नहीं है | मनोयोग होने पर मनउपयोग अवश्य ही हो, ऐसा नियम होता तो सर्वज्ञता को धक्का लगता क्योंकि मनउपयोग के साथ सम्पूर्ण पदार्थों के ज्ञान के अभाव का नियम है न कि मनोयोगके साथ ।
उत्तर--मन के द्वारा आत्मप्रदेशों में जो परिस्पंद होता है बह मनायोग है। यहां यह खयाल रखना चाहिये कि मनःपर्याप्ति पूर्ण होने के बाद मृत्युके समय तक द्रव्यमन रहता है और मनोवर्गणाएँ भी आती रहती हैं फिर भी हर समय मनोयोग नहीं होता। इसका कारण क्या है ? इसी के उत्तर से पता लग जाता है कि द्रव्यमन के रहने पर और मनोर्गणाओं के आने पर भी जबतक मनउपयोग न होगा तबतक मनोयोग न होगा।
मनोयोग के जो सत्य असत्य आदि चार भेद किये गये है वे भी मनउपयोग के भेद से ही हैं इससे भी मालूम होता है कि