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१३० 1 चौथा अध्याय अब छम हो गया है ? क्षयोपशम अवस्था में जो अंश प्रकट था, क्षय अवस्था में भी कह प्रकट रहेगा। यदि वह अप्रकट हो जायगा तो उसको अप्रकट करनेवाले घातक कर्मका सद्भाव मानना पड़ेगा। परन्तु जिसके ज्ञानावरण का क्षय हुआ है उसके ज्ञानघातक कर्म कैसे होगा ? इसलिये केवली के, आँखों से जानने की शक्तिका घात नहीं मानना चाहिये । इस प्रकार केवली के आँखें भी हैं और जानने की पूर्णशक्ति भी है तब आँखों से दिखना कैसे कद है। भकता है ? एक उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जायगी।
एक मनुष्य मकान में बैठा हुआ गवाक्ष (खिड़की ) में से एक तरफ़ का दृश्य देख रहा है । अन्य दिशाओं में दीवालें होने से यह अन्य दिशाओं के दृश्य नहीं देख पाता । इतने में, कल्पना करो। कि किसी ने दीवाले हटादी । अब यह चारों तरफ से देखने लगा। इस अवस्था में खिड़की तो न रही परन्तु जिस तरफ खिड़की थी उस तरफ़ से अब भी वह देख सकता है इसी प्रकार ज्ञानावरण के क्षय हो जाने से क्षयोपशम के द्वारा जो देखने की शक्ति प्रकट हुई थी, वह नष्ट नहीं हो सकती बल्कि उसकी शक्ति बढ़ जाती है । अब वह अपनी आँखों से और भी अच्छी तरह देख सकता है ।
एक बात और है जब ज्ञानावरण कर्म के पाँच भेद हैं तो उनके क्षय की सार्थकता भी जुदी जुदी होना चाहिये । यदि ज्ञान गुण के सौ अंश मान लिये जायँ और एक अंश मतिज्ञानावरण, दो अंश श्रुतज्ञानावरण, तीन अंश अवधिज्ञानावरण, चार अंश मनःप-यज्ञानावरण और नव्वे अंश केवलज्ञानावरण घात करते हैं ऐसा मानलिया जाय तो संपूर्ण ज्ञानावरण के क्षय होने पर पाँचों