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चौथा अध्याय
से सुनते भी हैं । इसप्रकार मतिज्ञान का अस्तित्व भी उनके साबित होता है
यद्यपि बहुत से जैनाचार्यों का मत है कि केवली के दूसरा ज्ञान नहीं होता है, परन्तु यह पिछले आचार्यों का मत हैं । प्राचीन और प्रामाणिक मान्यता यही है कि केवली के पाँचों ज्ञान होते हैं । सूत्रकार उमास्वामि अपने तत्त्वार्थभाष्य में उस प्राचीन मत का उल्लेख इस प्रकार करते हैं
"कोई कोई आचार्य कहते हैं कि केवली के मति आदि चार ज्ञानों का अभाव नहीं होता किन्तु वे इन्द्रियों के समान अकिञ्चित्कर हो जाते हैं अथवा जिस प्रकार सूर्योदय होने पर चन्द्र नक्षत्र अग्निमणि आदि प्रकाश के लिये अकिञ्चित्कर होजाते हैं किन्तु उनका अभाव नहीं होता उसी प्रकार केवलज्ञान होने पर मति श्रुत आदि ज्ञानों का अभाव नहीं होता [१] ।"
इससे मालूम होता है कि केवलज्ञान के समय मति आदि ज्ञानों को मानने वाला मत उमास्वामिसे भी प्राचीन है । तथा युक्तिसंगत होने से प्रामाणिक भी है ।
यह बात विश्वाय नहीं है कि किसी मनुष्य को केवलज्ञान हो जानेपर आँखों से दिखना बन्द हो जावे । जब कि केवली के
१ केचिदाचार्याघ्यचाक्षते, नाभावः किन्तु तदभिभूतत्वादकिञ्चित्कराणिभवन्तीन्द्रियवत् ।
यथाव्यनमसि आदित्य उदितं भूरितेजस्त्वादादित्येनाभिभूतान्यतेजांसि ज्वलनमणिचन्द्रनक्षणप्रभृतीनि प्रकाशनं प्रत्यकिञ्चित्कराणि भवन्ति तद्वदिति । उ० त० भाष्य १-३१ |
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