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केवली के अन्य ज्ञान । १३१ ही ज्ञान के अंश प्रकट होंगे। अगर केवली को सिर्फ एक ही केवलज्ञान माना जाय तो इसका मतलब यह होगा कि उन्हें ज्ञान गुण के सौ अंशों में से नव्ये अंश ही मिले हैं। इस प्रकार उनका ज्ञान अपूर्ण रह जायगा । संपूर्ण ज्ञानावरण का क्षय निरर्थक जायगा । इसलिये केवली के अन्य ज्ञान मानना आवश्यक हैं। ___ यदि यह कहा जाय कि ज्ञान के १०० अंश हैं और केवल ज्ञान के भी १०० अंश हैं, उसी में से दस अंश मतिज्ञानादिक कहलाते हैं तब इसका मतलब यह होगा कि ज्ञानावरण के मतिज्ञानावरणादि चार भेदों की आवश्यकता नहीं है क्योंकि केवलज्ञानावरण ज्ञान के पूरे के पूरे १०० अंशों का घात करता है। तब मतिज्ञानावरणादि बैटे बैठे क्या करेंगे ? मतलब यह है कि जब मतिज्ञानावरणादि ज्ञानावरण कर्म के स्वतंत्र भेद हैं तब उनका स्वतंत्र कार्य भी होना चाहिये जो केवलज्ञानावरण कर्म नहीं कर सकता । यदि मतिज्ञानावरण का स्वतंत्र कार्य है तो उसके नाश से भी स्वतंत्र उद्भूति है जो केवलज्ञान से भिन्न है । इसलिये केवलज्ञान के प्रकट होने पर चार ज्ञानों के स्वतंत्र अस्तित्व का अभाव नहीं कहा जा सकता इसलिये एक साथ पाँच ज्ञानवाली मान्यता ही ठीक है। .
प्रश्न-जिस प्रकार मतिज्ञानावरणादि चार कर्मों में कुछ सर्वघाती स्पर्द्धक होते हैं और कुछ देशघाती । दोनों का काम किसी एक ही ज्ञान का घात करना होता है--अन्तर इतना है कि सर्वघाती स्पर्द्धक पूर्णरूप में बात करते हैं और देशघाती स्पर्द्धक अंशरूपमें । उसी तरह संपूर्ण ज्ञान-गुण को घातनेवाला केवलज्ञानावरण है और उसके एक एक अंश को घातनेवाले मतिज्ञानावरणादि हैं।