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केवली और मन
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योग का निषेध नहीं किया जा सकता । यदि वह बोलने के लिये अभिमुख होता है तो अमुक स्वर व्यञ्जन बोलने के लिये विशेष प्रयत्न होना चाहिये । परन्तु वह विशेष प्रयत्न विचारपूर्वक ही हो सकता है । अपने आप विशेष प्रयत्न नहीं हो सकता । अगर वह अपने आप होगा तो केवली के मुख से सदा एक की आवाज़ निकलेगी क्योंकि आवाज़ बदलने का विशेष प्रयत्न कौन करेगा ?
प्रश्न - - केवली की आवाज़ मेघगर्जना की तरह एक तरह की होती है । वह श्रोताओं के कानमें आते आते अनेकरूप हो जाती है (१) । इसलिये जब तक वह वाणी श्रोताओं के कान में नहीं पहुँचती तब तक वह अनक्षरात्मक रहती हैं । इसीलिये उनके अनुभव वचनयोग होता है। जुदे जुदे अक्षरों के लिये जुदे जदे प्रयत्नों की आवश्यकता है, अनक्षरात्मक के लिये
नहीं । उत्तर - प्राचीन विद्वानों ने भक्तिवश होकर केवली की सर्वज्ञता बनाये रखने के लिये अनक्षरात्मक वाणी की कल्पना अवश्य की है । परन्तु यह कल्पना भक्तिवश की गई है । अन्य प्रामाणिक शास्त्र इसके विरोधी हैं । दिगम्बर सम्प्रदाय के सबसे अधिक प्रामाणिक धवलादि ग्रंथों में से श्रीधवल में अनक्षरात्मक वाणी का निषेध किया गया है । और अनुभव वचनयोग का कारण यह बतलाया है। किं भगवान ' स्यात् ' आदि पदों का प्रयोग करते हैं । इसलिये उनके
(२) सयोग केवलिदिब्यध्वनेः कथेस यानुभय-वारयोगत्वमितिचेन्न, तदुत्पत्तावनक्षरात्मकत्वेन • श्रोतृश्री प्रदेश प्राप्ति समय पर्यंतमनुभय भाषात्वसिद्धेः । गोम्मटसार जीवकांड टीका २२७ ॥