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११२ ] चौथा अध्याय रूप परिणति बताई गई है न कि पुद्गल की, इसका अर्थ यही हो सकता है कि आत्मा की परिणति भावमन या मानसिक विचार रूप हुई है । गोम्मटसार टीका ने भी सत्यमन आदि में मन का अर्थ भावमन किया है। इससे यह बात स्पष्ट है कि मनोयोग मनउपयोग के बिना नहीं होता। केवली के मनोयोग सिद्ध है इसलिये मनउपयोग भी सिद्ध हुआ और इसी ले सर्वज्ञता खण्डित हो गई।
- जिन लोगों ने मनोवर्गणा के आगमन को भी मनोयोग कह दिया है वे आचार्य भले ही हों पर उनने मनोवर्गणा की परिभाषा के बाहर की चीज़ को मनोयोग कहने की जबर्दस्ती की है । - प्रश्न--'मनके निमित्त से आत्मप्रदेशों में हलन चलन होना मनोयोग है' इस प्रकार की व्यापक परिभाषा में मनोवर्गणाओं के आगमन के लिये या आगमन के साथ जो योग होता है वह भी मनोयोग हो जायगा, मनोवर्गणाओं के आगमन के लिये मनउपयोग की आवश्यकता नहीं है, इस प्रकार मनोयोग और मनउपयोग का अविनाभाव सम्बन्ध नहीं रह जाता जिससे मनोयोग से मनउपयोग सिद्ध किया जा सके और प्रचलित सर्वज्ञता नष्ट हो जाय ।
उत्तर--अगर मनोयोग की परिभाषा बदल कर इतनी व्यापक कर दी जाय कि मनोवर्गणाओं के आगमन के लिये होनेवाले योग को मनोयोग कहा जा सके तो मनोयोग जन्म से मरण तक स्थायी हो जायगा क्योंकि वर्गणाओं का आगमन तो तब सदा होता रहता है । कार्ययोग और वचनयोग के समय भी मनोवर्गणाएँ आती