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केवली और मन
[१०५ उपयोग मानना आवश्यक हो जायगा । कहा जा सकता है कि आँखवालों को रूपप्रत्यक्ष चक्षुव्यापारपूर्वक होता है इसलिये केवली को भी चक्षुर्व्यापारपूर्वक रूप प्रत्यक्ष होना चाहिये ।
और जब असंज्ञियों के वचनव्यवहार विना मन के ही माना जाता है तब केवली के भी मानलिया जाए तो इसमें बुराई क्या है ?
इससे केवली के मनोयोग या तो मानना ही न चाहिये ग मानना चाहिये तो अनुपचरित मानना चाहिये ।। . २-अगर छद्मस्थों के वचनव्यवहार मनःपूर्वक होता है तो होता रहे । यह कोई आवश्यक नहीं है कि जो बात छमस्थों के होती है वह केवली के न होने पर भी मानीजाय । छद्मस्थों के चार मनोयोग होते हैं परन्तु केवली के सिर्फ दो [सत्य, अनुभय] ही बताये जाते हैं । छमस्थों को मरने के बाद ही कार्मण योग होता है; केवली जीवित अवस्था में ही कार्मण योगी हो सकते हैं। इससे सिद्ध है कि अगर केवली के मनोयोग न होता तो छद्मस्थों की नकल कराने के लिये उनमें मनोयोग न बताया जाता। :
३-मनोयोग के उपचार के लिये मनोवर्गणाओं का आगमन कारण बताया गया है परन्तु यह कोई नियम नहीं है कि जिस जाति की वर्गणाएँ औवे उसी जाति का योग भी होना चाहिये । तैजस वर्गणाएँ सदा आती हैं परन्तु तैजसथोग कभी नहीं होता। इसके अतिरिक्त जिस समय काययोग होता है उस समय भाषावर्गणा और मनोवर्गणाएँ भी आती हैं इसी प्रकार वचनयोग के समय भी अन्य वर्गणाएँ आती हैं। क्या काययोग या वचनयोग से मनोवणाएँ नहीं आ सकती