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सप्तभंगी
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दोष मढ़ते हैं, वे सप्त
। सप्तभंगी यह नहीं उसी रूपसे नास्ति है
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जो लोग सप्तभंगी पर इस प्रकार के भंगी के स्वरूप को जानबूझकर भुलाते हैं कहती कि जो पदार्थ जिस रूपसे अस्ति हैं एक क्षेत्रकालादि की अपेक्षा अस्ति है और दूसरे क्षेत्रादि की अपेक्षा नास्ति | इसमें विरोध क्या है ? आम बेर की अपेक्षा बड़ा है और कटहल की अपेक्षा बड़ा नहीं है- इसमें विरोध क्या है ? अमुक कार्य अमुक जमाने में अमुक व्यक्ति के लिए कर्तव्य है और दूसरे समय में दूसरे व्यक्ति के लिए कर्तव्य नहीं है - इसमें विरोध कैसा ? इससे स्पष्ट है कि सप्तभंगी में विरोध की कल्पना भ्रांत है । जब उनमें विरोध नहीं रहा तब वैयधिकरण्य भी न रहा
यहाँ अनवस्था दोष भी नहीं हैं, क्योंकि कल्पना के अनंत होने से ही अनवस्था दोष नहीं होता । अनवस्था दोष नहीं होता है जहाँ कल्पना अप्रामाणिक हो । प्रत्येक मनुष्य माता पितासे पैदा होता है, इसलिये अगर मातृपितृपरम्परा अनंत मानना पड़े तो इसे अनवस्था दोष न कहेंगे, क्योंकि यह परम्परा प्रमाणसिद्ध है । यहाँ यह बात भी ध्यान में रखना चाहिये कि धर्म में धर्म की कल्पना ठीक नहीं है । घट में अगर घटत्व है तो घटत्व में घटत्वत्व और उसमें घटत्वत्व आदि की कल्पना नहीं की जाती । जैसे यहाँ 1 पर धर्म में धर्म की कल्पना न करके अनवस्था से प्रकार सप्तभंगी में भी बचना चाहिये । फिर, इस खास सप्तभंगी से ही क्यों जोड़ना चाहिये ? किसी पदार्थ में अस्तित्व और नास्तित्व धर्म मानने से ही अस्तित्व में अस्तित्व की कल्पना क्यों करना चाहिये ? जो सप्तभंगी नहीं मानते - अस्तित्व के
बचते हैं, उसी
दोष का संबंध
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