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पहिला युक्त्याभास
[५७ विषय में भी है । वे दिख नहीं सकतीं पर अपना कोई ऐसा प्रभाव छोड़ सकती हैं जो अनुमान का साधन बन जाय जैसे बुझी हुई अग्नि ईंधन पर अपना प्रभाव छोड़ जाती है।
इसका मतलब यह है कि प्रत्यक्षत्व की योग्यता के जो कारण ( स्थूलत्व आदि ) हैं उनके न होने पर भी अनुमान की योग्यता के कारण रह सकते हैं तब यह नियम कैसे बनाया जा सकता है कि प्रत्यक्षत्व के अभाव में अनुमेयत्व नहीं हो सकता । इस प्रकार जब इन दोनों की व्याप्ति ही नहीं बनती तब यह अनुमान व्यर्थ है।
प्रत्यक्ष के जो रूप हमें उपलब्ध हैं उन्हीं के आधार पर किसी तरह की व्याप्ति बनाई जा सकती है व्याप्ति के लिये निश्चित साध्यसाधन चाहिये । जितने प्रकार के प्रत्यक्ष हमें उपलब्ध हैं उन के साथ अनुमेरल की व्याप्ति तो बनती नहीं, रहा कोई कल्पित अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष वह तो उपलब्ध ही नहीं है कि वह व्याप्ति बनाने में सहायक हो सके, वह तो व्याप्ति बनाने के बाद साध्य बन सकता है । जो अनुमेयत्व से प्रत्यक्षत्य की व्याप्ति सिद्ध करना चाहता है उसे सिद्ध करना चाहिये कि आजतक हमें जितने अनुमान हुए हैं वे हमार प्रत्यक्ष योग्य विषय में हुए हैं पर उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ऐसी बात नहीं होती।
सर्वज्ञसिद्धि के लिये उपस्थित किये गये इस अनुमान की एक अन्धरशाही यह है कि जो धर्म प्रत्यक्षत्व के बाधक हैं उन्हीं धर्मवाले पदार्थों में यह प्रत्यक्षत्व सिद्ध करना चाहता है । जैसे