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सर्वज्ञत्व और जैनशास्त्र
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समाधान- चक्षु में प्रतिबिम्बित होना एक बात है और प्रतिबिम्बित का ज्ञान होना दूसरी बात । कभी कभी हम सुनते हुए भी नहीं सुनते हैं, देखते हुए भी नहीं देखते हैं, कोई चीज हमारी आँखों के सामने होती है फिर भी हमारा उपयोग न होने से वह हमें नहीं दिखती । जाग्रत अवस्था में एक साथ हमें प्रायः सब इन्द्रियों के त्रिय मिलते रहते हैं फिर भी उन सब का ज्ञान नहीं होता इसका कारण यह है कि विषय विषय के मिल जाने से ही ज्ञान नहीं होता, उसकी तरफ उपयोग होना चाहिये। हमारी आँखों के सामने एक समय में एक दिशाके हजारों पदार्थ आजाते हैं पर हम उन सब को नहीं देख पाते। जिस तरफ ध्यान या उपयोग हो उसे ही देख पाते हैं । इसलिये दर्पण की तरह आँख की पुतली में प्रतिचिम्ब पड़ने से सब का ज्ञान न होगा । जब किसी फोटो में पचास आदमियों के चित्र होते हैं और हमसे कोई कहता है कि इसमें अमुक आदमी कहां है तो हमें ढूंढना पड़ता है और उसके लिये कुछ समय लगता है । अगर आँख में प्रतिबिम्ब पड़ने से ही सब का विशेष ज्ञान होता तो यह ढूढ़ खोज न करना पड़ती इससे प्रतिबिम्ब मात्र सिद्ध करने से उसका ज्ञान सिद्ध नहीं होता। इसलिये प्रतिबिम्ब भले ही एक साथ अनेक विशेषों का पड़ जाय पर अनेक विशेषों का एक साथ ज्ञान नहीं हो सकता। इसलिये केवली भी अनंत पदार्थ या अनन्त विशेष नहीं जान सकते ।
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शंका- तब तो केवली असर्वज्ञ हो जायगे ।
समाधान- अगर त्रिलोक के समस्त पदार्थों के ज्ञान का
नाम सर्वज्ञता है तब तो वे अवश्य असर्वज्ञ होजायगे या हैं
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