________________
सर्वज्ञत्व और जैनशास्त्र [९७ विशेषत्व का हमें एक ही समय में प्रत्यक्ष हो गया है परन्तु वास्तविक बात यह नहीं है। कोई भी सूक्ष्मदर्शी, या जैनन्याय का एक विद्यार्थी भी, इस बात को समझेगा कि दो घड़ों के इस तुलनात्मक ज्ञान में अनेक समय लग चुके हैं । जैनियों के शब्दों में तो असंख्य समय लग चुके हैं। पर इतनी सुक्ष्मता का अगर विचार न भी किया जाय तो भी पहिले हमें एक घड़े का प्रत्यक्ष होगा फिर दूसरे घड़े का प्रत्यक्ष होगा फिर पहिले घड़े की स्मृति होगी फिर दोनों का तुलनात्मक प्रत्यभिज्ञान होगा । यद्यपि दोनों घड़े सामने हैं फिर भी दोनों की तुलना में प्रत्यक्ष स्मृति और प्रत्यभिज्ञान हुए हैं।
और प्रत्येक प्रत्यक्ष में भी अवग्रहादि नाना उपयोग हुए हैं। इस प्रकार प्रत्येक अवयव का जुदा जुदा ज्ञान और अवयवी का जुदा ज्ञान होता है । इसलिये पेट की विशालता का उपयोग जुदा है मुख की लघुता का उपयोग जुदा और घट का उपयोग जुदा। इसलिये अगर केवलज्ञानी समस्त वस्तुओं का एक उपयोग करे भी, तो वह सामान्य उपयोग होगा, अनंत विशेष उसमें न झलकेंगे।
शंका-यदि घट का उपयोग जुदा है और उसकी विशेषताओं का उपयोग जुदा तो प्रत्येक विषय सामान्यविशेषात्मक कैसे होगा ? जैन दर्शन तो सामान्यविशेषात्मक वस्तुको ही प्रमाण का विषय मानता है।
समाधान--जो वस्तु का केवल सामान्यात्मक या नित्य मानते हैं और जो लोग केवल विशेषात्मक या क्षणिक मानते हैं उनका विरोध करने के लिये वस्तु की सामान्यविशेषात्मकता का वर्णन किया गया है । इसका यह मतलब नहीं है कि प्रत्येक प्रमाण या