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चौथा अध्याय उसके समस्त दृश्य अणु प्रतिभासित हो जायगे । पर एकबार नजर डाल कर उसके अवयवों को . देखने के लिये गौर से नजर डालना पड़ती है जिसे हम निरीक्षण कहते हैं । अगर अवयत्री के प्रतिभास से ही अवयवों का प्रतिभास हो जाय तो निरीक्षण की जरूरत ही न रहे । .. - शंका-मान्यता तो ऐसी है कि अवयवों के प्रतिभास के बिना अवयवी का प्रतिभास नहीं होता।
समाधान-~-यह मान्यता ठीक है । पर अवयवों के प्रतिभास का समय जुदा है और अवयवी के प्रतिभास का समय जुदा, पहिले अवयवों का प्रतिभास हो जाता है पीछे अवयवी का, इसलिये यह कहना तो ठीक है कि अवयवों के प्रतिभास के बिना अवयवी का प्रतिभास नहीं होता. पर जो उपयोग अवयवों का है वही अवयवी का नहीं है । जैसे अक्ग्रह के बिना ईहा आदि नहीं हो सकते किन्तु अवग्रह ईहा आदि का उपयोग जुदा जुदा है, उनका समय भी जुदा है, इसी प्रकार अवत्रयों के ज्ञान और अवयवी के ज्ञान का समय जुदा जुदा है, उपयोग भी जुदा जुदा है। * उपयोग की गति इतनी तेज है कि उपयोग की बीसों अत्रस्थाएँ हो जाने पर भी हमें एक ही अवस्था मालूम होती है । जैसे सिनेमा के पर्दे पर जब एक ही आदमी दिखाई देता है तब भी बीसों चित्र बदल जाते हैं उसी प्रकार जहां हमें एक ही उपयोग मालूम होता है वहाँ बीसों उपयोग बदल जाते हैं। जैसे हम दो घड़ों की ही बात लेलें । जब हमारी आंख के सामने दो घड़े आते हैं तब हमें छोटे बड़ेपन का ज्ञान तुरंत हो जाता है । ऐसा मालूम होता है कि उनके