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९० ] चौथा अध्याय .
तत्त्रार्थ की टीका सर्वार्थसिद्धि में मी क्षायिक दानादि का स्वरूप बतला कर यह प्रश्न किया गया है कि सिद्धों को भी अन्तराय कर्म का क्षय है परन्तु उनके दानादि कैसे सम्भव होंगे ? इसके उत्तर में कहा गया है कि अनन्तवीर्य रूप में दानादि सिद्धों को फल देते (१) हैं । परन्तु यह समाधान ठीक नहीं है क्योंकि अनन्तवीर्य तो अरहन्त में भी होता है, तब क्या दानादि भी जब अनन्तवीर्य रूप में परिणत होते हैं उस समय अनन्तवीर्य में भी वृद्धि होती है ? क्षायिक लब्धि में भी क्या तरतमता हो सकती है ? तरतमता होने से तो वह क्षारोपशमिक हो जायगी। यदि कुछ वृद्धि नहीं होती तो वह [दानादि ] लब्धि निरर्थक ही हुई । इस प्रकार कर्मका क्षय भी निरर्थक हुआ । दूसरी बात यह है कि यदि एक लब्धि दूसरे रूप में परिणत होने लगे तब तो केवलज्ञान भी केवलदर्शन रूप में परिणत होने लगेगा । इसलिये अगर सिद्धों में कोई केवलज्ञान न माने सिर्फ केवलदर्शन माने तो क्या आपत्ति की जा सकेगी ? इसलिये यही मानना चाहिये कि क्षायिक लब्धि भी उपयोगरहित लब्धि रूप में चिरकाल तक रह सकती है। और उसे कार्यरूप में परिणत होने के लिये बाह्य निमित्तों की आवश्यकता भी होती है । जैसे क्षायिक दानादि को कार्यपरिणत होने के लिये तीर्थंकर नामकर्म शरीर नामकर्म आदि निमित्तों की आत्रश्यकता मानी गई है।
(१)यदि शायिकदानादिभावकृतमभयदानादि सिद्धष्वपि तत्प्रसङ्गः इति. चेन्न, शरिनामतीर्थकरनामकोदयायपेक्षत्वात्तेषां तदमा तासङ्गः । कथं तर्हि तेषां सिद्धेषु वृत्तिः ? परमानन्तर्वार्याव्याबाधसुखरूपेण तेषां तत्र वृत्तिः । सर्वार्थसिद्धि २-४
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