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सर्वज्ञत्व और जैनशास्त्र
प्रकार ज्यों ज्यों उपयोगक्षत्र विशाल होता जायगा, त्यो त्यों विशेषताके अंश विषयके बाहिर होते जाँयगे और उन सब की समानता विषय में रहती जायगी । जब किसी उपयोग का विषय बढ़ते बढ़ते त्रिलोकन्यापी हो जायगा तब त्रिलोक में रहनेवाली समानता उस उपयोग का विषय होगी, न कि सब विशेषताएँ। अन्यथा केवलज्ञान के समय में अनन्त उपयोग मानना पड़ेंगे। परन्तु जब एक साथ एक आत्मा में दो उपयोग भी नहीं हो सकते तब अनन्त उपयोग कैसे होंगे ?
केवलज्ञान और केवलदर्शन जो आत्मा में एक साथ नहीं माने जाते उसका कारण सिर्फ यही है कि जिस समय केवली की दृष्टि विशेषअंश पर है उस समय वह सामान्य प्रतिभास नहीं कर सकता
और जब समान अंश पर है तब विशेषप्रतिभास नहीं कर सकता। जब समान तत्त्वों और विशेष तत्वों का प्रतिभास एक साथ नहीं हो सकता तब अनन्त विशेषों का प्रतिभास एक साथ कैसे हो सकेगा ? यदि केवली महासत्ता के प्रतिभास के समय जीवकी सत्ता (अवान्तर सत्ता) का प्रतिभास नहीं कर सकता और जीवकी सत्ता के प्रतिभास के समय महासत्ता का प्रतिभास नहीं कर सकता तो जीवकी सत्ता के प्रतिभास के समय अजीवकी सत्ताका प्रतिभास
को अनुभव नहीं करता हाँ सामान्य रूपसे वेदनाका ग्रहण करता है।
___ इस वक्तव्य से यह स्पष्ट है कि एक साथ अनेक वस्तुओं का विशेषज्ञान नहीं हो सकता । एक साथ अनेक विशेषों का ज्ञान मानने से मुनि गंग को जैनधर्म का लोपक (निहव) माना गया है। इसलिये केवली के भी त्रिलोक की सब वस्तुओं का विशेषज्ञान एक साथ कैसे हो सकता है ?