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सर्वज्ञत्व और जैनशास्त्र
"सो किसलिये भदन्त "
" गौतम ! ज्ञान साकार होता है और दर्शन निराकार होता है, इसलिये वह जिस समय जानता है उस समय देखता नहीं है और जिस समय देखता है उस समय जानता नहीं है। जो बात रत्नप्रभा के लिये कही गई है वही शर्कराप्रभा के लिये जानना चाहिये | इसी प्रकार बालुका आदि सप्तम पृथ्वी तक, सौधर्म आदि ईषत् प्राग्भार पृथ्वी तक परमाणु से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्धं तक जानना चाहिये । (१)
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दूसरा मत [ सहयोगबाद ) मल्लवादी (२) का है और दिगम्बर सम्प्रदाय में तो वह आमतौर पर प्रचलित है ( ३ ) । प्रथम मतके विरोध में इन लोगों का यह कहना है ।
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[क] ज्ञानावरण और दर्शनावरण का क्षय एक साथ होता
(१) "केवली णं भन्ते ! इमं रयणप्पभं पुढविं आगारेहिं हेतुर्हि उवमाहिं दितेहिं वहिं संहणपेहिं पमाणेहिं पडोवयारेहिं जं समयं जाणति तं समयं पासह जं समयं पासह तं समयं जाणइ ?",
" गोमा ! णो तिमट्ठे समट्ठे ?"
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'सेकेणटुणं भंते एवं बुच्चति केवली र्ण इमं रणयभं...."
" गोयमा सागारे से णाणे भवति, अणगारे से दंसणे भवति से तेषद्वेणे एवं सोहम्मकप्पं जाव अच्चुयं गेविपरमाणु पोग्यलं दुपदेसियं खधं
जविणो तं समयं जापति एवं जाव अहेसत्तमं जविमाणा अगुत्तररात्रेमाणा ईसीपमारं पुढविं जाव अनंतपदेखियं खंधं " पण्णत्रणा पद ३०, सूत्र ३१४
(२) मवादिनस्तु युगपद्भावितद्वयं सम्मतिप्रकरण द्वि. कांड १० ।
(३) दंसणपुब्बं पाणं छदुमत्थाणं ण दुण्णि उवयोगा | जुगवं जम्हा केवलाहे जुगवं तु ते दोवि । द्रव्यसंग्रह ।