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सर्वज्ञल और जैनशास्त्र पयोगी सिद्धसेन आदि में भी किये हैं। परन्तु विशेष बात इतनी है कि सिद्धसेन दिवाकरको सहोपयोगवाद इसलिये पसन्द नहीं है कि एक समय में दो उपयोग नहीं हो सकते। [हंदि दुवे णस्थि उवयोगा]
इस प्रकार मल्लवादी और सिद्धसेन, इन दोनों ने प्राचीन आगम परम्परा का विरोध किया है । परन्तु इन दोनों महानुभावों की शङ्काओं का समाधान बहुत अच्छी तरह से विशेषावश्यक और नन्दीवत्ति में किया गया है। यहाँ भी उसका सार दिया जाता है।
ऊपर जो प्रश्न उपस्थित किये गये हैं, उनका उत्तर यह है ।
[क] दोनों कर्मोका क्षय तो एक साथ होता है और उसके फलस्वरूप केवलदर्शन और केवलज्ञान भी एक साथ होते हैं परन्तु यह उपयोगरूपमे एक साथ नहीं रहना । जैसे चार ज्ञानधारी मनुष्य चारों का उपयोग एक साथ नहीं करता उसी प्रकार केवलज्ञान और केवलदर्शन का उपयोग भी सदा नहीं होता (१)। .
[ख] यद्यपि दोनों को सादि अनन्त कहा है, 'किन्तु वह लन्धि की अपेक्षा कहा है । उपयोग की अपेक्षा तो भद्रबाहु स्वामी दोनों में से एक ही उपयोग बताते हैं 'ज्ञान और दर्शन में से एकही उपयोग होता है क्योंकि दो उपयोग एक साथ कभी नहीं होते, [२] । जैसे मतिज्ञान की स्थिति ६६ सागर बनाई है परन्तु
(१)जुगवमयाणन्तोऽविहु चउहिवि नाणेहि जब चउमाणी। भन्मा तहेव अरिहा सवण्णू सव्वदरिसीय । युगपत्केवलज्ञानदर्शनोपयोगाभावेऽपि निःशेषतदावरणक्षयात् सर्वशः सर्वदशी चोच्यते इत्यदोषः । (नन्दीवृत्ति)
(२) नाणम्मिदं सणम्मि य एतो एगयरयम्मि उवउत्तो । सवस्स केवालिसा जुगवं दो नत्थि उपयोगा। विशेषावश्यक ३०९७ ।