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चौथा अध्याय को स्वभाव विप्रकर्षी माना है (सूक्ष्माः स्वभावविप्रकर्षिणो ऽ र्थाः परमाण्वादयः (अष्टसहस्री) । रहे अन्तरित और दूर पदार्थ सो, वे अन्तरित और दूर प्राणियों से प्रत्यक्ष हो सकते हैं। इस प्रकार हमारी अपेक्षा से तो रही अनुनेयता और अन्तरित और दूर प्राणियों की अपेक्षा रही प्रत्यक्षता इससे सर्वज्ञता की सिद्धि में क्या लाभ हुआ ? क्योंकि सर्वज्ञता के द्वारा तो एक जगह और एक समय में सब का प्रत्यक्ष कराना है।
प्रश्न--पदार्थ में सामान्यतः प्रत्यक्षता सिद्ध हाने पर विशेष रूप में प्रत्यक्षता सिद्ध हो जायगी । जिसका एक आदमी प्रत्यक्ष कर सकता है उसको दूसरा भी कर सकता है क्योंकि सब आत्मा समान हैं।
उत्तर--हमारे दादा आदि जितना देख सकते थे उतना ही हम देख सकते हैं आँख की शक्ति दोनों की बराबर है पर वे अपने जमाने में जो दृश्य देख गये वे हमें नहीं दिखते और जो हमें दिख रहे हैं वे उन्हें भी नहीं दिखते थे, इस प्रकार समान ज्ञान होने पर भी एक दूसरे का विषय नहीं देख पाते । दो आदमी हैं परीक्षा द्वारा यह जान लिया गया कि दोनों की आँखें एक बराबर शक्ति रखती हैं। एक बम्बई गया दूसरा कलकत्ता । अब आँखों की शाक्त बराबर होने पर भी जो दृश्य बम्बई वाला देखता है वह कलकत्ते वाला नहीं देखता जो कलकत्ते वाला देखता है वह बम्बई वाला नहीं देखता । इस प्रकार ज्ञान की बराबरी के साथ विषय की एकता का कोई सम्बन्ध नहीं है 'अनन्त का प्रत्यक्ष असम्भव' इस