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दूसरा युक्तयामास
[ ६३ एक हजार योजन की बतलाई है । कोई एक ग्रास भोजन करता है, कोई दो प्रास, कोई दस बीस तीस आदि, इस प्रकार भोजन में तरतमता होने पर भी कोई अनन्त ग्रास नहीं खासकता । कोई एक हाथ कूदता है, कोई दो हाथ; परन्तु कोई अनन्त हाथ नहीं कूद सकता । उमर में तरतमता होने पर भी कोई अनन्त वर्ष की उमरका नहीं होता । मतलब यह कि तरतमतां तो सैकड़ों वस्तुओं में पाई जाती है परन्तु उनकी सर्वोत्कृष्टता का अनन्त पर पहुँचने का नियम नहीं है 1
प्रश्न- जो तरतनताएँ परनिमित्तक हैं वे अन्त सहित. हैं, जैसे कूदने की, खाने की, शरीर की आदि । स्वाभाविक तर - तमता अनन्त होती है। यद्यपि जब तक तरतमता है तब तक स्वाभाविकता नहीं आ सकती, क्योंकि न्यूनाधिकता [तरतमता ] का कारण कोई परवस्तु ही होती है । फिर भी एक तो ऐती तरतमता होती है जो अपने अन्तिम रूपमें भी परनिमित्तक बनी रहती है जैसे शरीर आदि की । यह अन्त सहित होती है । और एक ऐसी तरतमता होती है जो अन्तिम रूपमें परनिमित्तक नहीं रहती जैसे ज्ञान की । यह अनन्त होती है ।
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उदार - यह नियम भी अनुभव के विरुद्ध है; इतना ही नहीं किन्तु जैन शास्त्रों के भी विरुद्ध है। जीवकी अवगाहना मुक्तावस्था में परनिमित्तक नहीं रहती, फिर भी वह अनन्त नहीं है । किसी तरह अगर वह पूर्ण अवस्था में भी पहुँच जाय तो भी वह लोका से अधिक हो सकती। दूसरी बात यह है कि जैन शास्त्रों के
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