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चौथा अध्याय
बिना समझे ही इसका विरोध कर डाला है। उनका कहना यह है कि किसी वस्तुको अस्ति और नास्ति ये दोनों ही कहना परस्परविरुद्ध है । इसी विरोध - दोषको मूल दोष बनाकर और भी सात दोषों की कल्पना की जाती है।
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जब अस्तित्व और नास्तित्व परस्परविरोधी हैं, तत्र अस्तित्व का जो आधार है वह नास्तित्वका आधार नहीं हो सकता इस प्रकार दोनों का जुदा जुदा अधिकरण होने से वैयधिकरण्य दोष कहलाया ।
जैसे किसी वस्तुमें सात भंग लगाये जाते हैं, वैसे ही अस्ति भंग में भी सात भंग लगाये जा सकते हैं । इस दूसरी सप्तभंगी में - जो कि अस्ति भंग में लगाई गई है- जो अस्तिभंग आयेगा उसमें भी फिर सप्तभंगी लगाई जावेगी । इस प्रकार अनंत सप्तभगियाँ होनेसे 'अनवस्था' दोष होगा ।
जब अस्ति और नास्ति एक ही जगह रहेंगे तब जिस रूप में अस्ति है, उसी रूप में नास्ति भी होगा । इस प्रकार अस्ति और नास्ति की गड़बड़ी होने से 'संकर' दोष होगा ।
पदार्थ जिस रूपसे अस्ति है उस रूपसे नास्ति भी हो जायगा, इस प्रकार परस्पर अदला बदली होने से व्यतिकर दोष होगा । एक ही वस्तु में अस्ति और नास्ति सरीख परस्पर विरोधी धर्म मानने से संशय हो जायगा । जहाँ संशय है वहाँ वस्तुकी प्रतिपत्ति ( ज्ञान ) नहीं हो सकती, इसलिये अप्रतिपत्ति नामक दोष हो जायगा । जब वस्तुका ज्ञान ही न हुआ तब वस्तुका सद्भाव सिद्ध न होने से अभाव हो गया ।
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