________________
४८]
चौथा अध्याय परोक्ष बन जाता है तब अस्वच्छ और विशाल हो जाता हैं।
परोक्ष में कल्पनाओं का और बहुत से ज्ञानों का संस्कार का उपयोग होता है इसलिये वह भूत भविष्य को भी जानता है पर प्रत्यक्ष को इतने साधन कहाँ ?
प्रत्यक्ष की स्वाधीनता ने उसे अल्पसहाय बना दिया है इसलिये उसका विषय क्षेत्र संकुचित हो गया है जब कि पराधीनता बहुसहायरूप होने से उसे विस्तृत बनाती है।
बल्कि एक दृष्टि से प्रत्यक्ष की अपेक्षा परोक्ष अधिक स्वाधीन है। प्रत्यक्ष तभी तक काम कर सकता है जब तक पदार्थ ठीक स्थान पर मौजद है । स्मृति आदि परोक्ष को पदार्थ सामने रखने की ज़रूरत नहीं है । परोक्ष संस्कार की सहायता से कल्पनाओं द्वारा आँख बन्द करके भी मनचाहा विषय कर सकता है। प्रत्यक्ष में इतनी गति कहाँ ?
खैर, यह नियम नहीं है कि जिसका परोक्ष होसके उसका प्रत्यक्ष भी होसके । परमाणु परमनोवृत्ति आदि का हमें अनुमान हो सकता है प्रत्यक्ष नहीं। इसलिये यह कहना ठीक नहीं कि परोक्ष जिसे जानेगा उसे प्रत्यक्ष भी जानेगा। इसलिये प्रत्यक्ष भूत भविष्य को विषय नहीं कर सकता।
प्रश्न-इन्द्रिय सुख में बाहरी विषयों की आवश्यकता होती है पर इन्द्रिय जयी को नहीं होती फिर भी उसे आनन्द मिलता है। इसी प्रकार साधारण ज्ञानी को प्रत्यक्ष में पदार्थ की आवश्यकता है केवली को नहीं।