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चौथा अध्याय साथ नास्तित्व नहीं मानते केवल अस्तित्व ही मानते हैं-उनसे भी यह कहा जा सकता है कि तुम पदार्थो में अस्तित्व मानोगे तो अस्तित्व में भी अस्तित्व मानना पड़ेगा, इस प्रकार अनवस्था होगी। परन्तु क्या इसीलिये पदार्थ में अस्तित्व भी न माना जावे ? इसलिये यह अनवस्था दोष असिद्ध है। ___जब अस्तित्व और नास्तित्व अपेक्षाभेदसे जुदे दे सिद्ध होगए, तब संकर और व्यतिकर दोष तो आ ही कैसे सकते हैं ? संशय का कारण विरोध था, परन्तु जब विरोध ही न रहा तब संशय भी न रहा और उसीसे अप्रतिपत्ति और अभाव भी दूर हो गये । इस प्रकार सप्तभंगी निर्दोष है ।
आवश्यकता इस बात की है कि सप्तभंगी का उपयोग समन्वय की दृष्टि से व्यापक क्षेत्र में किया जाय और उसके अवक्तव्य का स्वरूप ठीक कर लिया जाय जैसा प्रारम्भ में मैंने दिया है ।
इस प्रकार नास्ति अवक्तव्य भंग से ज्ञान की सीमा के विषय में निर्णय करना चाहिये।
आत्मा का स्वभाव, आवरणनाश आदि की दुहाई का यहाँ कोई मूल्य नहीं है क्योंकि ये सब बातें अनिश्चित हैं, संदिग्ध हैं, जब कि 'अनन्त का प्रत्यक्ष असम्भव' नामक बाधा बिलकुल साफ है । जबतक यह बाधा दूर नहीं हो जाती और वस्तुके अंत होने की समस्या का हल नहीं हो जाता तबतक स्वभाव आदि की अन्य बातें बेकार हैं।