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ससममी उत्तर-सप्तभंगी के विषय में जैनाचार्यों से बड़ी भूल हुई है। यद्यपि यह प्रकरण सप्तभंगी का नहीं है पर सप्तभंगी को ठीक ठीक समझने से भी सर्वज्ञ प्रकरण समझने में सुभीता होगा इसलिये सप्तभंगी का कुछ विस्तार से स्वतन्त्र विवेचन कर लिया जाता है ।
सप्तभंगी किसी प्रश्न के उत्तर में या तो हम 'हाँ' बोलते हैं, या 'न' बोलते हैं। इसी 'हाँ' और 'न' को लेकर सप्तभंगी की रचना हुई है। इस प्रकार उत्तर देने के जितने तरीके हैं उन्हें 'भंग' कहते हैं और ऐसे सात तरीके हो सकते हैं, इसलिये सातो भंगों के समूह को सप्तभंगी कहते हैं । सप्तमंगी की शास्त्रीय शब्दों में परिभाषा यों की जाती है:
"प्रश्न के वशसे एक ही वस्तु में विरोध रहित विधिप्रतिधेकल्पना करना सप्तभंगी है ।" *
इसके विशेष विवेचन में कहा जाता है-"सात प्रकार के प्रश्न हो सकते हैं, इसलिये सप्तभंगी कही गई है । सात प्रकार के प्रश्नों का कारण सात प्रकार की जिज्ञासा है और सात प्रकार की जिज्ञासा का कारण सात प्रकार के संशय हैं और सात प्रकार के संशयों का कारण उसके क्रियरूप वस्तु के धर्मो का सात प्रकार होना है।"+
इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सप्तभंगी के सात भंग
* प्रश्नवशादेकत्र वस्तुनि अविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभंगी। -त. राजवार्तिक + अष्टसहस्री १४ ,