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বা অন্যান্য __. अवक्तव्यता के ये दोनों कारण सत्य और व्यावहारिक हैं, परन्तु जैन लेखक इन दोनों कारणों का उल्लेख नहीं करते । वे उसका कुछ विचित्र ही वर्णन करते हैं जिसकी किसी भी तरह संगति नहीं बैठती। उनका कहना है कि “अस्ति और नास्ति इन दोनों शब्दों को हम एक साथ नहीं बोल सकते, जब अस्ति बोलते हैं तब नास्ति रह जाता है और जब नास्ति बोलते हैं तब अस्ति रह जाता है, इसलिये वस्तु अबक्तव्य है।"
अवक्तव्य के इस अर्थ में वस्तु के किसी ऐसे धर्म या अवस्थाका निर्देश नहीं होता जिसे अवक्तव्य कह सकें । अवक्तव्य शब्द से जिन धर्मोंका उल्लेख होता है, वे धर्म तो हमारे लिये भी वक्तव्य रहते हैं । वक्तव्य होनेपर भी उन्हें अवक्तव्य कोटि में डालना निरर्थक है। कल कोई कहे कि वस्तु वक्तव्य तो है परन्तु उसे नाकसे नहीं बोल सकते इसलिये अवक्तव्य है । अवक्तव्यता के ऐसे कारणों का उल्लेख करना जैसा निरर्थक है वैसा जैन लेखकों का है। आप तो अस्ति और नास्ति को एक साथ बोलने का निषेध करते हैं, परन्तु यों तो 'अस्ति' भी एक साथ नहीं बोला जा सकता क्योंकि जिस समय 'अ' बोलते हैं उस समय "स्" रह जाता है, जब “स्" बोलते हैं तब 'ति' रह जाती है । परन्तु जिस प्रकार हम 'अस्ति' के स्वर व्यञ्जनों में अक्रमकी कल्पना से अवक्तव्यता का आरोप नहीं करते, उसी प्रकार अस्ति नास्तिं में भी नहीं करना चाहिये । अस्ति और नास्तिका अक्रम से उच्चारण नहीं होता, इसीलिये किसी वस्तुको अवक्तव्य कह देना अनुचित है।