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सप्तभंगी
[३५ दूसरी बात यह है कि सात प्रकार के भङ्गों का कारण वस्तु के धर्मों का सात प्रकार होना है। परन्तु अबक्तव्यताका ऐसा ही कारण माना जाय तो वस्तुधर्म के साथ उसका सम्बन्ध ही नहीं बैठता, क्योंकि वस्तु में दोनों ही धर्म एक साथ हैं । अवक्तव्य शब्द से किसी ऐसे धर्म का पता नहीं लगता जो अस्ति और नास्ति से न कहा गया हो। इसलिये सात प्रकार के धर्म से सात प्रकार के भङ्गों का कोई सम्बन्ध ही नहीं रहता।
तीसरी बात यह है कि भिन्न भिन्न पदार्थों की सप्तभंगियों में चार भङ्गों का मेद ही नहीं रहता। घटका द्रव्यक्षेत्रकालभाष और पटका द्रव्यक्षेत्रकालभाव जुदा जुदा है, इसलिये उसके अस्ति और नास्ति भंगसे कुछ विशेष धर्म का बोध होगा । परन्तु घट के अस्ति और नास्ति एक साथ नहीं कहे जा सकते और पटके अस्ति और नास्ति एक साथ नहीं कहे जा सकते, इन दोनों के अवक्तव्य में कोई अन्तर नहीं रहता। इसलिये अवक्तव्यादि चार भंग निरर्थक ही हो जाते हैं।
चौथी बात यह है कि इससे सप्तभंगी की उत्पत्ति ही नहीं हो सकती। ये सात भंग तो सात तरह के प्रश्नों पर अवलम्बित हैं और सात तरह के प्रश्न सात तरह के संशयोंपर अवलम्बित हैं । परन्तु अबक्तव्य का जैसा अर्थ जैनाचार्य और जैन पंडित करते हैं उसमें सात तरह के प्रश्न ही नहीं होते । प्रश्नकर्ता भी तो आखिर शब्द बोलकर पूछेगा और जब वह स्वयं यह अनुभव करता है कि मैं प्रश्न करने में जितने अक्षरों का उपयोग करता हूँ उनको एक साथ नहीं बोल सकता-आज तक जब कभी किसी के मुँह से दो