Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ [ प्रज्ञापनासूत्र * चौबीसवें कर्मबन्ध पद में यह चिन्तन प्रस्तुत किया गया है कि ज्ञानावरणीय प्रादि में से किस कर्म को बांधते हुए जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधता है ? * पच्चीसवें कर्मवेदपद में ज्ञानावरणीयादि कर्मों को बांधते हुए जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? इसका विचार किया गया है। * छन्वीसवें कर्मवेदबन्धपद में यह विचार प्रस्तुत किया गया है कि ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का वेदन करते हुए जीव कितनी कर्मप्रकृतियों को बांधता है ? सत्ताईसवें कर्मवेदपद में--ज्ञानावरणीय प्रादि का वेदन करते हुए जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? इसका विचार किया है / * अट्ठाईसवें आहारपद में दो उद्देशक हैं / प्रथम उद्देशक में-सचित्ताहारी आहारार्थी कितने काल तक, किसका आहार करता है ? क्या वह सर्वात्मप्रदेशों द्वारा आहार करता है, या अमुक भाग से आहार करता है ? क्या सर्वपुद्गलों का आहार करता है ? किस रूप में उसका परिणमन होता है ? लोमाहार आदि क्या हैं ?, इसका विचार है। दूसरे उद्देशक में आहार, भव्य, संज्ञी, लेश्या, दृष्टि आदि तेरह अधिकार हैं / उनतीसवें उपयोगपद में दो उपयोगों के प्रकार बताकर किस जीव में कितने उपयोग पाए जाते हैं ? इसका वर्णन किया है। * तीसवें पश्यत्तापद में भी पूर्ववत् साकारपश्यत्ता (ज्ञान) और अनाकारपश्यत्ता (दर्शन) ये दो भेद बताकर इनके प्रभेदों की अपेक्षा से जीवों का विचार किया गया है। * इकतीसवें संज्ञीपद में संज्ञी, असंज्ञी और नोसंज्ञी की अपेक्षा से जीवों का विचार किया है। * बत्तीसवें संयतपद में संयत, असंयत और संयतासंयत की दृष्टि से जीवों का विचार किया गया है। * तेतीसवें अवधिपद में विषय, संस्थान, अभ्यन्तरावधि, बाह्यावधि, देशावधि, सर्वावधि, वृद्धि-अवधि, प्रतिपाती और अप्रतिपाती, इन द्वारों के माध्यम से विचारणा की गई है / * चौतीसवें प्रविचारणा (या परिचारणा) पद में अनन्तरागत अाहारक, आहारविषयक आभोग अनाभोग, आहाररूप से गृहीत पुद्गलों की अज्ञानता, अध्यवसायकथन, सम्यक्त्वप्राप्ति तथा कायस्पर्श, रूप, शब्द और मन से सम्बन्धित प्रविचारणा (विषयभोग-परिचारणा) एवं उनके अल्पबहत्व का विचार है। * पैंतीसवें वेदनापद में-शीत, उष्ण, शीतोष्ण, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, शारीरिक, मानसिक, शारीरिक-मानसिक साता, असाता, साता-असाता, दुःखा, सुखा, अदुःखसुखा, आभ्युपगमिकी, औपक्रमिकी, निदा (चित्त की संलग्नता) एवं अनिदा नामक वेदनामों की अपेक्षा से जीवों का विचार किया गया है। * छत्तीसवें समुद्घातपद के वेदना, कषाय, मरण, वैक्रिय, तेजस, आहारक और केवलि समुद्घात की अपेक्षा से जीवों की विचारणा की गई है। इसमें केवलिसमुद्घात का विस्तृत वर्णन है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org