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ध्यान है। ध्यान में आत्मा परवस्तु से हटकर स्व-स्वरूप में लीन होता है। व्युत्सर्ग-विशिष्ट उत्सर्ग व्युत्सर्ग है। आचार्य अकलंक'०५ ने व्युत्सर्ग की परिभाषा करते हुए लिखा है-नि:संगता, अनासक्ति, निर्भयता और जीवन की लालसा का त्याग, व्युत्सर्ग है। आत्मसाधना के लिए अपने आप को उत्सर्ग करने की विधि व्युत्सर्ग है। व्युत्सर्ग के गणव्युत्सर्ग, शरीरव्युत्सर्ग उपधिव्युत्सर्ग और भक्तपानव्युत्सर्ग ये चार भेद हैं।०६ शरीरव्युत्सर्ग का नाम ही कायोत्सर्ग है। भगवान् महावीर ने साधक को "अभिक्खणं काउस्सग्गकारी" अभीक्षण-पुन:पुनः कायोत्सर्ग करने वाला कहा है। जो साधक कायोत्सर्ग में सिद्ध हो जाता है, वह सम्पूर्ण व्युत्सर्ग तप में सिद्ध हो जाता है। बाह्य और आभ्यन्तर तप के द्वारा शास्त्रकार ने जैनधर्म के तप के स्वरूप को उजागर किया है। इस प्रकार छठे समवाय में विविध विषयों का निरूपण
है।
सातवां समवाय : एक विश्लेषण
सातवें स्थान में सात प्रकार के भय, सात प्रकार के समुद्घात, भगवान् महावीर का सात हाथ ऊँचा शरीर, जम्बूद्वीप में सात वर्षधर पर्वत, सात द्वीप, बारहवें गुणस्थान में सात कर्मों का वेदन, मघा, कृतिका, नक्षत्रों के सात-सात तारे व नक्षत्र बताये हैं। नारकों और देवों की सात पल्योपम तथा सात सागरोपम स्थिति का उल्लेख है। इसमें सर्वप्रथम सात भय का वर्णन है। इहलोकभय, परलोकभय, आदानभय, अकस्मात्भय, आजीविकाभाय, मरणभय और अश्लोकभय। अतीतकाल में विजातीय जीवों का भय अधिक था। पर आज वैज्ञानिक खलनायकों ने मानव के अन्तर्मानस में इतना अधिक भय का संचार कर दिया है कि बड़े-बड़े राष्ट्रनायकों के हृदय भी धड़क रहे हैं कि कब अणुबम, उद्जन बम का विस्फोट हो जाये, या तृतीय विश्वयुद्ध हो जाये! जैन आगम साहित्य में जिस तरह भयस्थान का उल्लेख हुआ है, उसी तरह बौद्ध साहित्य में भयस्थानों का उल्लेख है।०७ वहाँ जाति-जन्म, जरा, व्याधि, मरण, अग्नि, उदक, राज, चोर, आत्मानुवाद-स्वयं के दुराचार का विचार, परानुवादभय-दूसरे मुझे दुराचारी कहेंगे, आदि विविध भयों के भेद बताये हैं। इस तरह सातवें स्थान में वर्णन है।
आठवां समवाय : एक विश्लेषण
आठवें समवाय में आठ मदस्थान, आठ प्रवचनमाता, वाणव्यन्तर देवों के आठ योजन ऊंचे चैत्यवृक्ष आदि, केवली समुद्घात के आठ समय, भगवान् पार्श्व के आठ गणधर, चन्द्रमा के आठ नक्षत्र, नारकों और देवों की आठ पल्योपम व सागरोपम की स्थिति आठ भव करके मोक्ष जाने वालों का वर्णन है।
__ सर्वप्रथम इसमें जातिमद, कुलमद आदि मदों का वर्णन है। समयावांग की तरह स्थानांग१०८ में भी आठ मदों का उल्लेख आया है। आवश्यकसूत्र में साधक को यह संकेत किया गया है कि आठ मद से वह निवृत्त होवे। सूत्रकृतांग०९ में स्पष्ट निर्देश है कि अहंकार से व्यक्ति दूसरों की अवज्ञा करता है, जिससे उसे संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है। भगवान् महावीर के जीव ने मरीचि के भव में जाति और कुल मद किया था फलस्वरूप उन्हें देवानन्दा की कुक्षि में आना पड़ा। अतः मदस्थानों से बचना चाहिए। अंगुत्तरनिकाय में११० में तीन प्रकार के मद बताये हैं१०५. तत्त्वार्थराजवार्तिक, ९/२६/१० १०६. भगवती २५/७ १०७. अंगुत्तरनिकाय ४/११९/५-७ १०८. स्थानांग स्था. ८ १०९. सूत्रकृतांग-१/२/१-२ ११०. अंगुत्तरनिकाय-३/३९
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