________________
षट्स्थानक-समवाय]
[१५ षट्स्थानक-समवाय - ३१-छ लेसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-कण्हलेसा नीललेसा काउलेसा तेउलेसा पम्हलेसा सुक्कलेसा। छ जीवनिकाया पण्णत्ता, तं जहा-पुढवीकाए आऊकाए तेउकाए वाउकाए वणस्सइकाए तसकाए। छव्विहे बाहिरे तवोकम्मे पण्णत्ते, तं जहा-अणसणे ऊणोयरिया वित्तीसंखेवो रसपरिच्चाओ कायकिलेसो संलीणया। छव्विहे अभिंतरे तवोकम्मे पण्णत्ते, तं जहा-पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं सज्झाओ झाणं उस्सग्गो।
छह लेश्याएं कही गई हैं। जैसे- कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या।
विवेचन-तीव्र-मन्द आदि रूप कषायों के उदय से, कृष्ण आदि द्रव्यों के सहकार से आत्मा की परिणति को लेश्या कहते हैं। कषायों के अत्यन्त तीव्र उदय होने पर जो अतिसंक्लेश रूप रौद्र परिणाम होते हैं, उन्हें कृष्णलेश्या कहते हैं । इससे उतरते हुए संक्लेशरूप जो रौद्र परिणाम होते हैं, उन्हें नीललेश्या कहते हैं । इससे भी उतरते हुए आर्तध्यान रूप परिणामों को कापोतलेश्या कहते हैं। कषायों का मन्द उदय होने पर दान देने और परोपकार आदि करने के शुभ परिणामों को तेजोलेश्या कहते हैं। कषायों का और भी मन्द उदय होने पर जो विवेक, प्रशम भाव, संवेग आदि जागृत होते हैं, उन परिणामों को पद्मलेश्या कहते हैं । कषायों का सर्वथा मन्द उदय होने पर जो निर्मलता आती है, उसे शुक्ललेश्या कहते हैं। मनुष्य
और तिर्यंच जीवों में अन्तर्मुहूर्त के भीतर ही भावलेश्याओं का परिवर्तन होता रहता है। किन्तु देव और नारक जीवों की लेश्याएं अवस्थित रहती हैं। फिर भी वे अपनी सीमा के भीतर उतार-चढ़ाव रूप होती रहती है। शरीर के वर्ण को द्रव्यलेश्या कहते हैं । इसका भावलेश्या से कोई अविनाभावी सम्बन्ध नहीं है।
__ (संसारी) जीवों के छह निकाय (समुदाय) कहे गये हैं। जैसे- पृथिवीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय। छह प्रकार के बाहिरी तप:कर्म कहे गये हैं। जैसे-अनशन, ऊनोदर्य, वृत्तिसंक्षेप, रसपरित्याग, कायक्लेश और संलीनता। छह प्रकार के आभ्यन्तर तप कहे गये हैं। जैसे- प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग।
विवेचन- छह जीवनिकायों में से आदि के पांच निकाय स्थावरकाय और एकेन्द्रिय जीव हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तिर्यंच तथा मनुष्य और देवगति नरकगति के जीव त्रसकाय कहे जाते हैं।
जिन तपों से बाह्य शरीर के शोषण-द्वारा कर्मो की निर्जरा होती है, उन्हें बाह्य तप कहते हैं। यावज्जीवन या नियतकाल के लिए चारों प्रकार के आहार का त्याग करना अनशन तप है। भूख से कम खाना ऊनोदर्य तप है। गोचरी के नियम करना और विविध प्रकार के अभिग्रह स्वीकार करना वृत्तिसंक्षेप तप है। छह प्रकार के रसों का या एक, दो आदि रसों का त्याग करना रस-परित्याग तप है। शीत, उष्णता की बाधा सहना, नाना प्रकार के आसनों से अवस्थित रह कर शरीर को कृश करना कायक्लेश तप है। एकान्त स्थान में निवास कर अपनी इन्द्रियों की प्रवृत्ति को रोकना संलीनता तप है।
भीतरी मनोवृत्ति के निरोध द्वारा जो कर्मों की निर्जरा का साधन बनता है, उसे आभ्यन्तर तप कहते