________________
२१६ ]
[ समवायाङ्गसूत्र समय देवायु का बन्ध कर रहा है तो वह इसी समय उसके साथ पंचेन्द्रिय- जातिनामकर्म का भी बन्ध कर रहा है, देवगति नामकर्म का भी बन्ध कर रहा है, आयु की नियत कालवाली स्थिति का भी बन्ध कर रहा है और उसके नियत परिमाण वाले कर्मप्रदेशों का भी बन्ध कर रहा है, नियत रस - विपाक या तीव्र-मन्द फल देने वाले अनुभाग का भी बन्ध कर रहा है और देवगति में होने वाले वैक्रियिक अवगाहना अर्थात् शरीर का भी बन्ध कर रहा है। इन सब अपेक्षाओं से आयुकर्म का बन्ध छह प्रकार का कहा गया 1
६११ – नेरइयाणं भंते! कइविहे आउगबंधे पन्नत्ते ? गोयमा ! छव्विहे पन्नत्ते, तं जहा जातिनाम० गइनाम० ठिइनाम० पएसनाम० अणुभागनाम० ओगाहणानाम० । एवं जाव वेमाणियाणं । भगवन् ! नारकों का आयुबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ?
-
गौतम ! छह प्रकार का कहा गया है, जैसे – जातिनामनिधत्तायुष्क, गतिनामनिधत्तायुष्क, स्थितिनामनिधत्तायुष्क, प्रदेशनामनिधत्तायुष्क, अनुभागनामनिधत्तायुष्क और अवगाहनानामनिधत्तायुष्क । इसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर वैमानिक देवों तक सभी दंडकों में छह-छह प्रकार का आयुबन्ध जानना चाहिए।
६१२ – निरयगई णं भंते! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नता ?
गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं बारस मुहुते ।
भगवन्! नरकगति में कितने विरह - ( अन्तर - ) काल के पश्चात् नारकों का उपपात (जन्म) कहा गया है ?
गौतम! जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से बारह मुहूर्त नारकों का विरहकाल कहा गया है।
विवेचन - जितने समय तक विवक्षित गति में किसी भी जीव का जन्म न हो, उतने समय को विरह या अन्तरकाल कहते हैं। यदि नरक में कोई जीव उत्पन्न न हो, तो कम से कम एक समय तक नहीं उत्पन्न होगा। यह जघन्य विरहकाल है। अधिक से अधिक बारह मुहूर्त तक नरक में कोई जीव उत्पन्न नहीं होगा, यह उत्कृष्टकाल है । (बारह मुहूर्त्त के बाद कोई न कोई जीव नरक में उत्पन्न होता ही है ।)
६१३– एवं तिरियगई मणुस्सगई देवगई।
इसी प्रकार तिर्यग्गति, मनुष्यगति और देवगति का भी जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना चाहिए । विवेचन - ऊपर जो उत्कृष्ट अन्तर या विरहकाल बारह मुहूर्त्त प्रतिपादन किया गया है, वह सामान्य कथन है। विशेष कथन की अपेक्षा आगम में नरक की सातों ही पृथिवियों में नारकों का विरहकाल भिन्न-भिन्न बताया गया है। जैसा कि टीका में उद्धृत निम्न गाथा से स्पष्ट है
चवीसई मुहुत्ता सत्त अहोरत्त तह य पन्नरसा । मासो य दो य चउरो छम्मासा विरहकालो ति ॥ १ ॥
अर्थात् – उत्कृष्ट विरहकाल पहिली पृथिवी में चौबीस मुहूर्त्त, दूसरी मे सात अहोरात्र, तीसरी में पन्द्रह अहोरात्र, चौथी में एक मास, पांचवीं में दो मास, छठी में चार मास और सातवीं पृथिवी में छह मास का होता है।
1