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[समवायाङ्गसूत्र विवेचन- शेष तीर्थंकरों के दूसरे दिन भिक्षा-प्राप्त करने के उल्लेख का यह अर्थ है कि जो जितने भक्त के नियम के साथ दीक्षित हुए, उसके दूसरे दिन उन्हें भिक्षा प्राप्त हुई। ६४५ - उसभस्स पढमभिक्खा खोयरसो आसि लोगणाहस्स।
सेसाणं परमण्णं अमियरसरसोवमं आसि॥३२॥ सव्वेसिं पि जिणाणं जहियं लद्धाउ पढमभिक्खाउ।
तहियं वसुधाराओ सरीरमेत्तीओ वुट्ठाओ॥३३॥ लोकनाथ ऋषभदेव को प्रथम भिक्षा में इक्षुरस प्राप्त हुआ। शेष सभी तीर्थंकरों को प्रथम भिक्षा में अमृत-रस के समान परम-अन्न (खीर) प्राप्त हुआ॥ ३२ ॥ सभी तीर्थंकरों जिनों ने जहाँ जहाँ प्रथम भिक्षा प्राप्त की, वहाँ वहाँ शरीरप्रमाण ऊंची वसुधारा की वर्षा हुई ॥ ३३॥ ६४६–एएसिं चउव्वीसाए तित्थगराणं चउवीसं चेइयरुक्खा होत्था। तं जहा
णग्गोह सत्तिवण्णे साले पियए पियंगु छत्ताहे ।। सिरिसे य णागरुक्खे साली य पिलंखुरुक्खे य ॥ ३४॥ तिंदुग पाडल जंबू आसत्थे खलु तहेव दहिवण्णे । णंदीरुक्खे तिलए अंबयरुक्खे य असोगे य ॥३५॥ चंपय वउले य तहा वेडसरुक्खे य धायईरुक्खे ।
साले य वडमाणस्स चेइयरुक्खा जिणवराणं ॥३६॥ इन चौबीस तीर्थंकरों के चौबीस चैत्यवृक्ष थे। जैसे
१. न्यग्रोध (वट), २. सप्तपर्ण, ३. शाल, ४. प्रियाल, ५. प्रियंगु, ६. छत्राह, ७. शिरीष, ८. नागवृक्ष, ९. साली, १०. पिलंखुवृक्ष, ११. तिन्दुक १२. पाटल, १३. जम्बु, १४. अश्वत्थ (पीपल) १५. दधिपर्ण, १६. नन्दीवृक्ष, १७. तिलक, १८. आम्रवृक्ष, १९. अशोक, २०. चम्पक, २१. बकुल, २२. वेत्रसवृक्ष, २३. धातकीवृक्ष और २४. वर्धमान का शालवृक्ष। ये चौबीस तीर्थंकरों के चैत्यवृक्ष हैं ॥ ३४३६ ।। ६४७- बत्तीसं धणुयाइं चेइयरुक्खो य वद्धमाणस्स ।
णिच्चोउगो असोगे ओच्छण्णे सालरुक्खेणं ॥३७॥ तिण्णेव गाउआई चेइयरुक्खो जिणस्स उसभस्स । सेणाणं पण रुक्खा सरीरओ वारसगणा उ॥३८॥ सच्छत्ता सपडागा सवेडया तोरणेहिं उववेया।
सर-असर-गरुलमहिआ चेडयरुक्खा जिणवराणं ॥३९॥ वर्धमान भगवान् का चैत्यवृक्ष बत्तीस धनुष ऊंचा था, वह नित्य-ऋतुक था अर्थात् प्रत्येक ऋतु में उसमें पत्र-पुष्प आदि समृद्धि विद्यमान रहती थी। अशोकवृक्ष सालवृक्ष से आच्छन्न (ढंका हुआ) था, ॥३७॥ ऋषभ जिन का चैत्यवृक्ष तीन गव्यूति (कोश) ऊंचा था। शेष तीर्थंकरों के चैत्यवृक्ष उनके शरीर की ऊंचाई से बारह गुणे ऊंचे थे॥ ३८॥ जिनवरों के ये सभी चैत्यवृक्ष छत्र-युक्त, ध्वजा-पताका-सहित, वेदिका-सहित, तोरणों से सुशोभित तथा सुरों, असुरों और गरुडदेवों से पूजित थे॥ ३९॥