Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Hiralal Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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२३८ ]
[ समवायाङ्गसूत्र
१. श्रेणिक, २ . सुपार्श्व, ३. उदय, ४. प्रोष्ठिल अनगार, ५. दृढायु, ६. कार्तिक, ७. शंख, ८. नन्द, ९. सुनन्द, १०.शतक, ११. देवकी, १२. सात्यकि, १३. वासुदेव, १४. बलदेव, १५. रोहिणी, १६. सुलसा, १७. रेवती, १८. शताली, १९. भयाली, २०. द्वीपायन, २१. नारद, २२. अंबड, २३. स्वाति, २४. बुद्ध । ये भावी तीर्थंकरों के पूर्व भव के नाम जानना चाहिए ॥ ७९-८२ ॥
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६६९ – एएसि णं चउव्वीसाए तित्थगराणं चउब्वीसं पियरो भविस्संति, चउव्वीसं मायरो भविस्संति, चउव्वीसं पढमसीसा भबिस्संति, चडब्बीसं पढमसिस्सणीओ भविस्संति, चउव्वीसं पढमभिक्खादायगा भविस्संति, चउव्वीसं चेइयरुवरवा भविस्संति ।
उक्त चौबीस तीर्थंकरों के चौबीस पिता होंगे, चौबीस माताएं होंगी, चौबीस प्रथम शिष्य होंगे, चौबीस प्रथम शिष्याएं होंगी, चौबीस प्रथम भिक्षा-दाता होंगे और चौबीस चैत्य वृक्ष होंगे।
६७० - जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए बारस चक्कवट्टिणो भविस्संति । तं जहा -
सुद्ध
य ।
भरहे य दीहदंते गूढदंते ग सिरिउत्ते सिरिभूई सिरिसोमे य सत्तमे ॥ ८३ ॥ पउमे य महापउमे विमलवाहणे (लेतह) बिपुलवाहणे चेव । रिट्ठे वारसमे वुत्ते आगमिस्सा भरहाहिवा ॥ ८४ ॥ इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में आगामी उत्सर्पिणी में बारह चक्रवर्ती होंगे। जैसे
१. भरत, २. दीर्घदन्त, ३. गूढदन्त, ४. शुद्धदन्त, ५. श्रीपुत्र, ६. श्रीभूति, ७. श्रीसोम, ८. पद्म, ९. महापद्म, १०. विमलवाहन, ११. विपुलवाहन और बारहवाँ रिष्ट, ये बारह चक्रवर्ती आगामी उत्सर्पिणी काल में भरत क्षेत्र के स्वामी होंगे ॥८३-८४॥
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६७१ – एएसि णं बारसण्हं चक्कवट्टीणं बारस पियरो, बारस मायरो भविस्संति, बारस इत्थीरयणा भविससंति ।
इन बारह चक्रवर्तियों
बारह पिता, बारह माता और बारह स्त्रीरत्न होंगे।
६७२ - जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए नव बलदेव - वासुदेवपियरो भविस्संति, नव बासुदेबमाबरो भविस्संति, नव बलदेवमायरो भविस्संति, नव दसारमंडला भविस्संति । तं जहा – उत्तमपुरिसा मज्झिमपुरिसा पहाणपुरिसा ओयंती तेयंसी। एवं सो चेव वण्णओ भाणियव्व जाव नीलगपीतगवसणा दुवे दुवे राम-केसवा भायरो भविस्संति । तं जहा -
नंदे य नंदमित्ते दीहबाहू तहा महाबाहू । अइबले महाबले बलभद्दे य सत्तमे ॥ ८५ ॥ दुवि य तिव य आगमिस्साण वहिणो । जयंत विजए भद्दे सुप्पभे य सुदंसणे ॥ ८६ ॥ आणंदे नंदणे पडमे संकरिसणे अ अपच्छिमे ।
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