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अतीत अनागतकालिक महापुरुष]
[२४१ ६७७-इच्चेयं एवमाहिज्जति। तं जहा-कुलगरवंसेइ य, एवं तित्थगरवंसेइ य, चक्कवट्टिवंसेइ य दसारवंसेइ वा गणधरवंसेइ य, इसिवंसेइ य, जइवंसेइ य, मुणिवंसेइ य, सुएइ वा, सुअंगेइ वा सुयसमासेइ वा, सुयखंधेइ वा समवाएइवा, संखेइ वा समत्तमंगमक्खायं अज्झयणं ति वेमि।
___ इस प्रकार यह अधिकृत समवायाङ्ग सूत्र अनेक प्रकार के भावों और पदार्थों का वर्णन करने के रूप में कहा गया है। जैसे- इसमें कुलकरों के वंशों का वर्णन किया गया है। इसी प्रकार तीर्थंकरों के वंशों का, चक्रवर्तियों के वंशों का, दशार-मंडलों का, गणधरों के वंशों का, ऋषियों के वंशों का, यतियों के वंशों का और मुनियों के वंशों का भी वर्णन किया गया है। परोक्षरूप से त्रिकालवर्ती समस्त अर्थों का परिज्ञान कराने से यह श्रुतज्ञान है, श्रुतरूप प्रवचन-पुरुष का अंग होने से यह श्रुताङ्ग है, इसमें समस्त सूत्रों का अर्थ संक्षेप से कहा गया है, अतः यह श्रुतसमास है, श्रुत का समुदाय रूप वर्णन करने से यह 'श्रुतस्कन्ध' है, समस्त जीवादि पदार्थों का समुदायरूप कथन करने से यह संख्या' नाम से भी कहा जाता है। इसमें आचारादि अंगों के समान श्रुतस्कन्ध आदि का विभाग न होने से यह अंग 'समस्त' अर्थात् परिपूर्ण अंग कहलाता है। तथा इसमें उद्देश आदि का विभाग न होने से इसे 'अध्ययन' भी कहते हैं। इस प्रकार श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी को लक्ष्य करके कहते हैं कि इस अंग को भगवान् महावीर के समीप • जैसा मैंने सुना, उसी प्रकार से मैंने तुम्हें कहा है।
विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त तीर्थंकरादि के वंश से अभिप्राय उनकी परम्परा से है। ऋषि, यति आदि शब्द साधारणतः साधुओं के वाचक हैं, तो भी ऋद्धि-धारक साधुओं को ऋषि, उपशम या क्षपकश्रेणी पर चढ़ने वालों को यति, अवधि, मन:पर्यय ज्ञान वालों को मुनि और गृहत्यागी सामान्य साधुओं को अनगार कहते हैं । संस्कृत टीका में गणधरों के सिवाय जिनेन्द्र के शेष शिष्यों को ऋषि कहा है। निरुक्ति के अनुसार कर्म-क्लेशों के निवारण करने वाले को ऋषि, आत्मविद्या में मान्य ज्ञानियों को मुनि, पापों का नाश करने को उद्यत साधुओं को यति और देह में भी नि:स्पृह को अनगार कहते हैं।
यह समवायाङ्ग यद्यपि द्वादशाङ्गों में चौथा है, तथापि इसमें संक्षेप में सभी अंगा का वर्णन किया गया है, अत: इसका महत्त्व विशेष रूप से प्रतिपादन किया गया है।
॥समवायाङ्ग सूत्र समाप्त॥
रेषणात्क्लेशराशीनामृषिामहुर्मनीषिणः। मान्यत्वादात्मविद्यानां महद्भिः कीर्त्यते मुनिः॥८२९ ।। यः पापपाशनाशाय यतते स यतिर्भवेत्। योऽनीहो देह-गेहेऽपि सोऽनगारः सतां मतः ।।८३०॥ -[यशस्तिलकचम्पू]