Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Hiralal Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 338
________________ विविधविषय निरूपण ] वैमानिक कल्प तक सभी दंडकों में आयुबन्ध के आकर्ष जानना चाहिए। विवेचन – सामान्यतया आकर्ष का अर्थ है - कर्मपुद्गलों का ग्रहण । किन्तु यहाँ जीव के आगामी भव की आयु के बंधने के अवसरों को आकर्षकाल कहा है । यह आकर्ष-जीव के अध्यवसायों की तीव्रता और मन्दता पर निर्भर हैं । तीव्र अध्यवसाय हों तो एक ही बार में जीव आयु के दलिकों को ग्रहण कर लेता है । अध्यवसाय मंद हो तो दो आकर्षों से, मन्दतर हो तो तीन से और मन्दतम अध्यवसाय हो तो चार-पांच-छह-सात या आठ आकर्षों से आयु का बन्ध होता है। इससे अधिक आकर्ष कदापि नहीं होते । [ २१९ ६१७ – कइविहे णं भंते! संघयणे पन्नत्ते ? गोयमा ! छव्विहे संघयणे पन्नत्ते, तं जहा - वइरोसभनारायसंघयणे १, रिसभनारायसंघयणे २, नारायसंघयणे ३, अर्द्धनारायसंघयणे ४, कीलियासंघयणे ५, छेवट्टसंघयणे ६ । भगवन् ! संहनन कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम! संहनन छह प्रकार का कहा गया है। जैसे- - १. वज्रर्षभनाराचसंहनन, २. ऋषभनाराचसंहनन, ३. नाराचसंहनन, ४. अर्धनाराचसंहनन, ५. कीलिकासंहनन और ६. सेवार्तसंहनन । विवेचन - शरीर के भीतर हड्डियों के बन्धन विशेष को संहनन कहते हैं । उसके छह भेद प्रस्तुत सूत्र में बताये गये हैं। वज्र का अर्थ कीलिका है, ऋषभ का अर्थ पट्ट है और मर्कट स्थानीय दोनों पार्श्वो की हड्डी को नाराच कहते हैं। जिस शरीर की दोनों पार्श्ववर्त्ती हड्डियाँ पट्ट से बंधी हों और बीच में कीली लगी हुई हो, उसे वज्रऋषभनाराचसंहनन कहते हैं । जिस शरीर की हड्डियों में कीली न लगी हों, किन्तु दोनों पार्श्वों की हड्डियाँ पट्टे से बन्धी हों, उसे ऋषभनाराचसंहनन कहते हैं । जिस शरीर की हड्डियों पर पट्ट भी न हो उसे नाराचसंहनन कहते हैं । जिस शरीर की हड्डियाँ एक ओर ही मर्कट बन्ध से युक्त हों, दूसरी ओर की नहीं हों, उसे अर्धनाराचसंहनन कहते हैं। जिस शरीर की हड्डियों में केवल कीली लगी हो उसे कीलिकासंहनन कहते हैं । जिस शरीर की हड्डियाँ परस्पर मिली और चर्म से लिपटी हुई हों उसे सेवार्त संहनन कहते हैं। देवों और नारकी जीवों के शरीरों में हड्डियाँ नहीं होती हैं, अतः उनके संहनन का अभाव बताया गया है। मनुष्य और तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव छहों संहनन वाले होते हैं । एकेन्द्रियादि शेष तिर्यंचों के संहननों का वर्णन आगे के सूत्र में किया है। ६१८ – नेरइया णं भंते! किंसंघयणी (पन्नत्ता ) ? गोयमा ! छहं संघयणाणं असंघयणी । व अट्ठी व सिरा णेव ण्हारू । जे पोग्गला अणिट्ठा अकंता अप्पिया अणाज्जा असुभा अमणुण्णा अमणामा अमणाभिरामा, ते तेसिं असंघयणत्ताए परिणमति । भगवन् ! नारक किस संहनन वाले कहे गये हैं ? गौतम ! नारकों के छहों संहननों में से कोई भी संहनन नहीं होता है। वे असंहननी होते हैं, क्योंकि उनके शरीर में हड्डी नहीं है, नहीं शिराएं ( धमनियां ) हैं और स्नायु (आंतें) नहीं हैं। वहाँ जो पुद्गल अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अनादेय, अशुभ, अमनोज्ञ, अमनाम और अमनोभिराम हैं, उनसे नारकों का शरीर संहनन-रहित ही बनता है ।

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