Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Hiralal Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 337
________________ २१८] [ समवायाङ्गसूत्र रत्नप्रभा पृथिवी के नारकी जीवों का उपपात - विरहकाल जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से चौबीस मुहूर्त है। शर्करा पृथिवी के नारकों का उत्कृष्ट उपपात विरहकाल सात रात-दिन है । वालुका पृथिवी में नारकों का उत्कृष्ट विरहकाल अर्ध मास (१५ रात - दिन) है। पंकप्रभा पृथिवी में नारकों का उत्कृष्ट विरहकाल एक मास है। धूमप्रभा पृथिवी में नारकों का उत्कृष्ट विरहकाल दो मास है । तमःप्रभा पृथिवी में नारकों का उत्कृष्ट विरहकाल चार मास है। महातमः प्रभा पृथिवी में नारकों का उत्कृष्ट विरहाकल छह मास है । असुरकुमारों का उत्कृष्ट उपपात-विरहकाल चौबीस मुहूर्त है। इसी प्रकार शेष सभी भवनवासियों का जानना चाहिए। पृथिवीकायिक आदि पांचों एकेन्द्रिय जीवों का विरहकाल नहीं है, क्योंकि वे सदा ही उत्पन्न होते रहते हैं। द्वीन्द्रिय जीवों का विरहकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, सम्मूच्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का विरहकाल जानना चाहिए। गर्भोपक्रान्तिक मनुष्यों का विरहकाल बारह मुहूर्त है। सम्मूच्छिम मनुष्यों का विरहाकल चौबीस मुहूर्त है । व्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म - ईशानकल्प के देवों का विरह काल भी चौबीस - चौबीस मुहूर्त है। सनत्कुमार देवों का विरहकाल नौ दिन और बीस मुहूर्त है। माहेन्द्र देवों का विरहकाल बारह दिन और दस मुहूर्त है। ब्रह्मलोक के देवों का विरहाकल साढ़े बाईस दिन-रात है। लान्तक देवों का विरहकाल पैंतालीस रात-दिन है। महाशुक्र देवों का विरहकाल अस्सी दिन है । सहस्रार देवों का विरहकाल एक सौ दिन है। आनत देवों का विरहकाल संख्यात मास है । इसी प्रकार प्राणत देवों का भी जानना चाहिए। आरण और अच्युत देवों का विरहकाल संख्यात वर्ष है। अधस्तन ग्रैवेयकत्रिक के देवों का विरकाल संख्यात शत वर्ष है। मध्यम ग्रैवेयकत्रिक के देवों का विरहकाल संख्यात सहस्र वर्ष है। उपरितन ग्रैवेयकत्रिक के देवों का विरहकाल संख्यात शतसहस्र वर्ष है । विजयादि चार अनुत्तर विमानों के देवों का विरहकाल असंख्यात वर्ष है और सर्वार्थसिद्ध देवों का विरहकाल पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग प्रमाण है। यह सब उपपात के विरह का काल है। विवक्षित नरक, स्वर्ग आदि से निकलने को अर्थात् उस पर्याय को छोड़कर अन्य पर्याय में जन्म लेने को उद्वर्तना कहते हैं। जिस गति का जितना उपपात विरहकाल बताया गया है, उसका उतना ही उद्वर्तनाकाल जानना चाहिए। - ६१६ – नेरइया णं भंते! जातिनामनिहत्ताउगं कति आगरिसेहिं पगरंति ? गोयमा ! सिय एक्केणं, सिय दोहिं, सिय तीहिं, सिय चउहिं, सिय पंचहिं, सिय छहिं, सिय सत्तहिं, सिय अट्ठहिं [ आगरिसेहिं पगरंति ] नो चेव णं नवहिं । एवं सेसाण वि आउगाणि जाव वेमाणिय त्ति । भगवन्! नारक जीव जातिनामनिधत्तायुष्क कर्म का कितने आकर्षों से बन्ध करते हैं ? गौतम! स्यात् (कदाचित् ) एक आकर्ष से, स्यात् दो आकर्षों से, स्यात् तीन आकर्षों से, स्यात् चार आकर्षों से, स्यात् पाँच आकर्षों से, स्यात् छह आकर्षों से, स्यात् सात आकर्षों से और स्यात् आठ आकर्षों से जातिनामनिधत्तायुष्क कर्म का बन्ध करते हैं । किन्तु नौ आकर्षों से बन्ध नहीं करते हैं। I इसी प्रकार शेष आयुष्क कर्मों का बन्ध जानना चाहिए । इसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर

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