Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Hiralal Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

Previous | Next

Page 333
________________ २१४] [समवायाङ्गसूत्र सुख-दुःख वेदनाएं वेदनीय कर्म की दूसरे के द्वारा उदीरणा कराये जाने पर होती हैं । अतः इन दोनों में उदय और उदीरणा जनित होने के कारण अन्तर है। जो वेदना स्वयं स्वीकार की जाती है, उसे आभ्युपगमिकी वेदना कहते हैं। जैसे-स्वयं केशलुंचन करना, आतापना लेना, उपवास करना आदि। जो वेदना वेदनीय कर्म के स्वयं उदय आने पर या उदीरणाकरण के द्वारा प्राप्त होने पर भोगी जाती है, उसे औपक्रमिकी वेदना कहते हैं। इन दोनों ही वेदनाओं को पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य भोगते हैं। किन्तु देव, नारक और एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीव केवल औपक्रमिकी वेदना को ही भोगते हैं। बुद्धिपूर्वक स्वेच्छा से भोगी जाने वाली वेदना को निदा वेदना कहते हैं और अबुद्धिपूर्वक या अनिच्छा से भोगी जाने वाली वेदना को अनिदा वेदना कहते हैं। संज्ञी जीव इन दोनों ही प्रकार की वेदनाओं को भोगते हैं। किन्तु असंज्ञी जीव केवल अनिदा वेदना को ही भोगते हैं। इस विषय में प्रज्ञापनासूत्र के पैंतीसवें वेदना पद का अध्ययन करना चाहिए। ६०७-कइ णं भंते! लेसाओ पन्नत्ताओ ? गोयमा ! छ लेसाओ पन्नत्ताओ, तं जहाकिण्हा नीला काऊ तेऊ पम्हा सुक्का। लेसापयं भाणियव्वं। भगवन् ! लेश्याएं कितनी कही गई हैं? ___गौतम! लेश्याएं छह कही गई हैं, जैसे- कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजालेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या। इस प्रकार लेश्यापद कहना चाहिए। विवेचन- इस स्थल पर संस्कृतटीकाकार ने प्रज्ञापनासूत्र के सत्तरहवें लेश्या पद को जानने की सूचना की है। अतिविस्तृत होने से यहां उसका निरूपण नहीं किया गया है। ६०८- अणंतरा य आहारे आहार भोगणा इ य । पोग्गला नेव जाणंति अज्झवसाणे य सम्मत्ते ॥१॥ आहार के विषय में अनन्तर-आहारी, आभोग-आहारी, अनाभोग-आहारी, आहार-पुद्गलों के नहीं जानने-देखने वाले और जानने-देखने वाले आदि चतुर्भंगी, प्रशस्त-अप्रशस्त, अध्यवसान वाले और अप्रशस्त अध्यवसान वाले तथा सम्यक्त्व और मिथ्यात्व को प्राप्त जीव ज्ञातव्य हैं ॥१॥ विवेचन-उपपात क्षेत्र में उत्पन्न होने के साथ ही शरीर के योग्य पुद्गलों के ग्रहण करने को अनन्तराहार कहते हैं। सभी जीव उत्पन्न होते ही अपने शरीर के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करते हैं। बुद्धिपूर्वक आहार ग्रहण करने को आभोग निर्वर्तित और अबुद्धिपूर्वक आहार ग्रहण करने को अनाभोगनिर्वर्तित कहते हैं । नारकी दोनों प्रकार का आहार ग्रहण करते हैं । इसी प्रकार सभी जीवों का जानना चाहिए। केवल एंकेन्द्रिय जीव अनाभोगनिर्वर्तित आहार करते हैं। नारकी जीव जिन पुद्गलों को आहार रूप से ग्रहण करते हैं, उन्हें अपने अवधिज्ञान से भी नहीं जानते हैं और न देखते हैं, इसी प्रकार असुरों से लेकर त्रीन्द्रिय तक के जीव भी अपने ग्रहण किये गये आहारपुद्गलों को नहीं जानते-देखते हैं। चतुरिन्द्रिय जीव आंख

Loading...

Page Navigation
1 ... 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379