Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Hiralal Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 317
________________ १९८] [समवायाङ्गसूत्र ५७९-[जीवरासी दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-संसारसमावन्नगा य असंसारसमावन्नगा य। तत्थ असंसारसमावनगा दुविहा पण्णत्ता....जाव......] जीव-राशि क्या है? [जीव-राशि दो प्रकार की कही गई है-संसारसमापन्नक (संसारी जीव) और असंसारसमापनक (मुक्त जीव) । इस प्रकार दोनों राशियों के भेद-प्रभेद प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार अनुत्तरोपपातिक सूत्र तक जानना चाहिए। ५८०-से किं तं अणुत्तरोववाइया? अणुत्तरोववाइआ पंचविहा पन्नता। तं जहाविजय-वेजयंत-जयंत-अपराजित-सव्वट्ठसिद्धिआ।सेत्तं अणुत्तरोववाइया।सेत्तं पंचिंदियसंसारसमावण्ण-जीवरासी। वे अनुत्तरोपपातिक देव क्या हैं ? अनुत्तरोपपातिक देव पाँच प्रकार के कहे गये हैं। जैसे-विजय-अनुत्तरोपपातिकं, वैजयन्तअनुत्तरोपपातिक, जयन्त-अनुत्तरोपपातिक, अपराजित-अनुत्तरोपपातिक और सर्वार्थसिद्धिक अनुत्तरोपपातिक। ये सब अनुत्तरोपपातिक संसारसमापनक जीवराशि हैं। यह सब पंचेन्द्रियसंसारसमापन-जीवराशि है। ५८१-दुविहाणेरइया पण्णत्ता।तं जहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य। एवंदंडओ भाणियव्वो जाव वेमाणिय त्ति। नारक जीव दो प्रकार के हैं – पर्याप्त और अपर्याप्त। यहां पर भी [प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार] वैमानिक देवों तक अर्थात् नारक, असुरकुमार, स्थावरकाय, द्वीन्द्रिय आदि, मनुष्य, व्यन्तर, ज्योतिष्क तथा वैमानिक का सूत्र-दंडक कहना चाहिए अर्थात् वर्णन समझ लेना चाहिए। ५८२-इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए केवइयं खेत्तं ओगाहेत्ता केवइया णिरयावासा पण्णत्ता ? गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्स-बाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठसत्तरि जोयणसयसहस्से एत्थ णं रयणप्पभाए पुढवीए णेरइयाणं तीसं णिरयावाससयसहस्सा भवंतीतिमक्खाया। ते णं णिरयावासा अंतो वट्टा, बाहिं चउरंसा जाव असुभाण रया, असुभाओ णिरएसु वेयणाओ। एवं सत्त वि भाणियव्वाओ जं जासु जुज्जइ [भगवन्] इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितना क्षेत्र अवगाहन कर कितने नारकवास कहे गये हैं? गौतम! एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी इस रत्नप्रभा पृथिवी के ऊपर से एक हजार योजन अवगाहन कर, तथा सबसे नीचे के एक हजार योजन क्षेत्र को छोड़कर मध्यवर्ती एक लाख अठहत्तर हजार योजन वाले रत्नप्रभा पृथिवी के भाग में तीस लाख नारकावास हैं । वे नारकावास भीतर की ओर गोल और बाहर की ओर चौकोर हैं यावत् वे नरक अशुभ हैं और उन नरकों में अशुभ वेदनाएं हैं। इसी प्रकार सातों ही पृथिवियों का वर्णन जिनमें जो युक्त हो, करना चाहिए।

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