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[समक्यागमूत्र हुए आचार्यों ने भेदः साक्षादसाक्षाच्च श्रुत-केवलयोर्मतः' कह कर श्रुतज्ञान की महत्ता प्रकट की है, अर्थात् श्रुतज्ञान और केवलज्ञान में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष का भेद कहा है। जहाँ केवलज्ञान त्रैलोक्य त्रिकालवर्ती, द्रव्यों, उनके गुणों और पर्यायों को साक्षात् हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष जानता है, वहां श्रुतज्ञान उन सबको परोक्ष रूप से जानता है। अतः संसार का कोई भी तत्त्व द्वादशाङ्ग श्रुत से बाहर नहीं है। सभी तत्त्व इस द्वादशाङ्ग गणिपिटक में समाहित हैं। आचाराङ्ग आदि ग्यारह अंगों में आचार आदि प्रधान रूप से एक-एक विषय का वर्णन किया गया है, किन्तु बारहवें दृष्टिवाद अंग में तो संसार के सभी तत्त्वों का वर्णन किया गया है। उसके पूर्वगत भेद में से जहाँ प्रारम्भ के उत्पादपूर्व आदि अनेक पूर्व वस्तु के उत्पाद-व्ययध्रौव्यात्मक स्वरूप का वर्णन करते हैं, वहाँ वीर्यप्रवादपूर्व द्रव्य की शक्तियों का, अस्तिनास्ति-प्रवादपूर्व अनेक धर्मात्मकता का, ज्ञानप्रवाद और आत्मप्रवाद पूर्व आत्मस्वरूप का, कर्मप्रवाद पूर्व कर्मों की दशाओं का निरूपण करते हैं। प्रत्याख्यानपूर्व अनेक प्रकार के प्रायश्चित्तों का, विद्यानवादपूर्व मंत्र-तंत्रों का. प्राणा
पर्व आयर्वेद के अष्टाङों का. अन्तरिक्ष. भौम अंग. स्वर. स्वप्न. लक्षण. व्यंजन और छिन्न इन आठ महानिमित्तों का एवं ज्योतिषशास्त्र के रहस्यों का वर्णन करता है। अबन्ध्यपूर्व कभी निष्फल नहीं जाने वाली कल्याणकारिणी क्रियाओं का वर्णन करता है। क्रियाविशालपूर्व क्रियाओं का, स्त्रियों की चौसठ और पुरुषों की बहत्तर कलाओं का, तथा काव्य-रचना, छन्द, अलंकार आदि का वर्णन करता है। लोकबिन्दुसारपूर्व अवशिष्ट सर्व श्रुतसम्पदा का वर्णन करता है । इस प्रकार ऐसा कोई भी जीवनोपयोगी एवं आत्मोपयोगी विषय नहीं है, जिसका वर्णन इन चौदह पूर्षों में न किया गया हो। कथानुयोग, गणित आदि विषयों का वर्णन दृष्टिवाद के शेष चार भेदों में किया गया है। इस प्रकार द्वादशाङ्ग श्रुत का विषय बहुत विशाल है।