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द्वादशांग गणि-पिटक]
[१९५ मेरु पर्वत के समान ध्रुव है, लोक के समान नियत है, काल के समान शाश्वत है, निरन्तर वाचना देने पर भी इसका क्षय नहीं होने के कारण अक्षय है, गंगा-सिन्धु नदियों के प्रवाह के समान अव्यय है, जम्बूद्वीपादि के समान अवस्थित है और आकाश के समान नित्य है। जिस प्रकार पाँच अस्तिकाय द्रव्य भूतकाल में कभी नहीं थे ऐसा नहीं, वर्तमान काल में कभी नहीं हैं, ऐसा भी नहीं है और भविष्य काल में कभी नहीं रहेंगे, ऐसा भी नहीं है। किन्तु ये पाँचों अस्तिकाय द्रव्य भूतकाल में भी थे, वर्तमानकाल में भी हैं और भविष्यकाल में भी रहेंगे। अतएव ये ध्रुव हैं, नियत हैं, शाश्वत हैं, अक्षय हैं, अव्यय हैं, अवस्थित हैं और नित्य हैं। इसी प्रकार यह द्वादशाङ्ग गणिपिटक भूतकाल में कभी नहीं था, ऐसा नहीं है, वर्तमान काल में कभी नहीं है, ऐसा नहीं और भविष्यकाल में कभी नहीं रहेगा, ऐसा भी नहीं है। किन्तु भूतकाल में भी यह था, वर्तमान काल में भी यह है और भविष्यकाल में भी रहेगा। अतएव यह ध्रुव है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है।
५७४-एत्थ णं दुवालसंगे गणिपिडगे अणंता भावा, अणंता अभावा, अणंता हेऊ, अणंता अहेऊ, अणंता कारणा, अणंता अकारणा अणंता जीवा, अणंता अजीवा, अणंता भवसिद्धिया, अंणता अभवसिद्धिया, अंणता सिद्धा, अणंता असिद्धा अघाविन्जंति पण्णविज्जति परूविज्जति दंसिज्जति निदंसिर्जति उवदंसिज्जति।
एवं दुवालसंगं गणिपिडगं ति।
इस द्वादशाङ्ग गणिपिटक में अनन्त भाव (जीवादि स्वरूप से सत् पदार्थ) और अनन्त अभाव (पररूप से असत् जीवादि वही पदार्थ), अनन्त हेतु, उनके प्रतिपक्षी अनन्त अहेतु; इसी प्रकार अनन्त कारण, अनन्त अकारण; अनन्त जीव, अनन्त अजीव; अनन्त भव्यसिद्धिक, अनन्त अभव्यसिद्धिक; अनन्त सिद्ध तथा अनन्त असिद्ध कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं.दर्शित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते हैं और उपदर्शित किये जाते हैं।
विवेचन-जैन सिद्धान्त में प्रत्येक वस्तु में जिस प्रकार अनन्त धर्म स्वरूप की अपेक्षा सत्तारूप में पाये जाते हैं, उसी प्रकार पररूप की अपेक्षा अनन्त अभावात्मक धर्म भी पाये जाते हैं। इसी कारण सूत्र में स्वरूप की अपेक्षा भावात्मक धर्मों का और पररूप की अपेक्षा अभावात्मक धर्मों का निरूपण किया गया है। पदार्थ के धर्म-विशेषों को सिद्ध करने वाली युक्तियों को हेतु कहते हैं। पदार्थों के उपादान और निमित्त कारणों को कारण कहते हैं। जिनमें चेतना पाई जाती है, वे जीव और जिनमें चेतना नहीं पाई जाती है, वे अजीव कहलाते हैं। जिनमें मुक्ति जाने की योग्यता है वे भव्यसिद्धिक और जिनमें वह योग्यता नहीं पाई जाती है उन्हें अभव्यसिद्धिक कहते हैं। कर्म-मुक्त जीवों को सिद्ध और कर्म-बद्ध संसारी जीवों को असिद्ध कहते हैं। इस प्रकार से यह द्वादशाङ्ग गणि-पिटक संसार में विद्यमान सभी तत्त्वों, भावों और पदार्थों का वर्णन करता है।
इस प्रकार द्वादशाङ्ग गणिपिटक का वर्णन समाप्त हुआ। उपसंहार-द्वादशाङ्ग श्रुतज्ञान का विषय बहुत विशाल है। श्रुतज्ञान की महिमा का वर्णन करते