________________
विविधविषय निरूपण ]
[ २११
अवगाहना उतनी ही जाननी चाहिए। नारक की मरण की अपेक्षा जघन्य अवगाहना एक हजार योजन कही गई है, क्योंकि प्रथम नरक का नारकी मरकर हजार योजन झाझोरी विस्तृत पाताल कलश की भित्ति को भेदकर उसमें मत्स्यरूप से उत्पन्न हो जाता है । उत्कर्ष से सातवें नरक का नारकी मरकर ऊपर लवणसमुद्रादि में मत्स्यरूप से उत्पन्न हो सकता है । तिर्यक् स्वयम्भूरमण समुद्र तक, तथा ऊपर पंडक वन की पुष्करिणी में भी मत्स्यरूप से उत्पन्न हो सकता है। मनुष्य मरकर सर्व ओर लोकान्त तक उत्पन्न हो सकता है, अत: उसके तैजस और कार्मणशरीर की अवगाहना उतनी लम्बी जानना चाहिए। भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्म - ईशानकल्प के देवों के दोनों शरीरों की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है, क्योंकि ये देव मर कर अपने ही विमानों में वहीं के वहीं एकेन्द्रिय पृथिवीकायिक जीवों में उत्पन्न हो सकते हैं । उनकी उत्कृष्ट अवगाहना नीचे तीसरी पृथिवी तक, तिरछी स्वयम्भूरमण समुद्र की बाहिरी वेदिका के अन्त तक और ऊपर ईषत्प्राग्भार पृथिवी के अन्त तक लम्बी जानना चाहिए। सनत्कुमार कल्प से लेकर सहस्रारकल्प तक के देवों के तैजस-कार्मण शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण कही गई है, क्योंकि ये देव पंडक वनादि की पुष्करिणियों में स्नान करते समय मरण हो जाने से वहीं मत्स्यरूप से उत्पन्न हो जाते हैं । उत्कृष्ट अवगाहना नीचे महापाताल कलशों के द्वितीय त्रिभाग तक जानना चाहिए, क्योंकि वहां जल का सद्भाव होने से वे मरकर मत्स्यरूप से उत्पन्न हो सकते हैं । तिरछे स्वयम्भूरमण समुद्र के अन्त तक अवगाहना जाननी चाहिए। ऊपर अच्युत स्वर्ग तक अवगाहना कही गई है, क्योंकि सनत्कुमारादि स्वर्गों के देव किसी सांगतिक देव के आश्रय से अच्युत स्वर्ग तक जा सकते हैं, और आयु पूर्ण होने पर वहां से मरकर यहां मध्यलोक में उत्पन्न हो सकते हैं। आनत आदि चार स्वर्गों के देवों की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग कही गई है, क्योंकि वहां का देव यदि यहां मध्य लोक में आया हो और यहीं मरण हो जाये तो वह यहीं किसी मनुष्यनी के गर्भ में उत्पन्न हो सकता है। उक्त देवों की उत्कृष्ट अवगाहना नीचे मनुष्यलोक तक जानना चाहिये, क्योंकि अन्तिम चार स्वर्गों के देव मरकर मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं। ग्रैवेयक और अनुत्तरविमानवासी देवों की जघन्य अवगाहनां विजयार्ध पर्वत की विद्याधर श्रेणी तक जानना चाहिए । उत्कृष्ट अवगाहना नीचे अधोलोक के ग्रामों तक, तिरछी मनुष्य लोक और ऊपर अपने-अपने विमानों तक कही गई है।
६०५ – कइविहे णं भंते! ओही पन्नत्ता?
गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता - भवपच्चइए य खओवसमिए य । एवं सव्वं ओहिपदं भणियव्वं । भगवन्! अवधिज्ञान कितने प्रकार का कहा गया है?
गौतम ! अवधिज्ञान दो प्रकार का कहा गया है- भवप्रत्यय अवधिज्ञान और क्षायोपशमिक अवधिज्ञान। इस प्रकार प्रज्ञापनासूत्र का सम्पूर्ण अवधिज्ञान पद कह लेना चाहिए ।
विवेचन – सूत्रकार ने जिस अवधिज्ञान- पद के जानने की सूचना की है, वह इस प्रकार हैअवधिज्ञान का भेद, विषय, संस्थान, आभ्यन्तर, बाह्य, देशावधि, वृद्धि, हानि, प्रतिपाति और अप्रतिपाति इन दश द्वारों से वर्णन किया गया है। सूत्रकार ने अवधिज्ञान के दो भेद कहे हैं, उनमें से भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवों और नारकों को होता है, तथा क्षायोपशमिक – गुणप्रत्यय अवधिज्ञान मनुष्य और तिर्यंचों को होता है ।