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[ समवायाङ्गसूत्र है, इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तु-स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, निदर्शन और उपदर्शन किया जाता है । यह बारहवाँ दृष्टिवाद अंग है । यह द्वादशाङ्ग गणि-पिटक का वर्णन है १२ ।
५७१ – इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं अतीतकाले अणंता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियट्टिसु । इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं पडुप्पणे काले परित्ता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियट्ठति । इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं अणागए काले अता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियट्टस्संति ।
इस द्वादशाङ्ग गणिपिटक की सूत्ररूप, अर्थरूप और उभय रूप आज्ञा का विराधन करके अर्थात् दुराग्रह के वशीभूत होकर अन्यथा सूत्रपाठ करके, अन्यथा अर्थ कथन करके और अन्यथा सूत्रार्थ - उभय की प्ररूपणा करके अनन्त जीवों ने भूतकाल में चतुर्गतिरूप संसार - कान्तार (गहन वन) में परिभ्रमण किया है, इस द्वादशाङ्ग गणि-पिटक की सूत्र, अर्थ और उभय रूप आज्ञा का विराधन करके वर्तमान काल में परीत (परिमित) जीव चतुर्गतिरूप संसार- कान्तार में परिभ्रमण कर रहे हैं और इसी द्वादशाङ्ग गणिपिटक की सूत्र, अर्थ और उभयरूप आज्ञा का विराधन कर भविष्यकाल में अनन्त जीव चतुर्गतिरूप संसार - कान्तार में परिभ्रमण करेंगे।
५७२ – इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं अतीतकाले अणंता जीवा आणाए आराहित् चाउरंतसंसारकंतारं वीईवइंसु । एवं पडुप्पण्णेऽवि [ परित्ता जीवा आणाए आराहित्ता चाउरंतसंसारकंतारं वीईवंति ] एवं अणागए वि [ अणंता जीवा आणाए आराहित्ता चाउरंतसंसारकंतारं वीईवइस्संति ] |
इस द्वादशाङ्ग गणि-पिटक की सूत्र, अर्थ और उभयरूप आज्ञा का आराधन करके अनन्त जीवों ने भूतकाल में चतुर्गति रूप संसार - कान्तार को पार किया है ( मुक्ति को प्राप्त किया है) । वर्तमान काल में भी (परिमित) जीव इस द्वादशाङ्ग गणि-पिटक की सूत्र, अर्थ और उभय रूप आज्ञा का आराधन करके चतुर्गतिरूप संसार-कान्तार को पार कर रहे हैं और भविष्यकाल में भी अनन्त जीव इस द्वादशाङ्ग गणिपिटक की सूत्र, अर्थ और उभय रूप आज्ञा का आराधन करके चतुर्गतिरूप संसार - कान्तार को पार करेंगे ।
५७३ – दुवालसंगे णं गणिपिडगे ण कयाइ णासी, ण कयावि णत्थि, ण कयाइ भविस्सइ। भुंवि च, भवति य, भविस्सति य । धुवे नितिए सासए अक्खए अव्वए अवट्ठिए णिच्चे । से जहा णामए पंच अत्थिकाया ण कयाइ ण आसि, ण कयाइ णत्थि, ण कयाइ ण भविस्संति । भुविंच, भवति य, भविस्संति य, धुवा णितिया सासया अक्खया अव्वया अवट्ठिया णिच्चा । एवामेव दुवालसंगे गणिपिडगे ण कयाइ ण आसि, ण कयाइ णत्थि, ण कयाइ ण भविस्सइ । भुवं च भवति य, भविस्सइ य । धुवे जाव अवट्ठिए णिच्चे ।
यह द्वादशाङ्ग गणिपिटक भूतकाल में कभी नहीं था, ऐसा नहीं है, वर्तमान काल में कभी नहीं है, ऐसा नहीं है और भविष्यकाल में कभी नहीं रहेगा, ऐसा भी नहीं है । किन्तु भूतकाल में भी यह द्वादशाङ्ग गणि-पिटक था, वर्तमान काल में भी है और भविष्यकाल में भी रहेगा। क्योंकि यह द्वादशाङ्ग गणिपिटक